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________________ 10] [समवायाङ्गसूत्र अनुभव करना, उनके प्राप्त होने से अभिमान करना रसगौरव कहलाता है। मेरे से ये परीषहउपसर्गादि नहीं सहे जाते, मैं शीत-उष्ण की बाधा नहीं सह सकता, इत्यादि प्रकार से अपनी सुखशीलता को प्रकट करना या साता प्राप्त होने पर अहंकार करना सातागौरव है / ज्ञान, दर्शन और मोक्ष के मार्ग हैं, उनकी विराधना करने से विराधना के भी तीन भेद हो जाते हैं। १६-मिगसिरनवखत्ते तितारे पन्नत्ते / पुस्सनक्खत्ते तितारे पन्नत्ते / जेद्वानवखत्ते तितारे पन्नत्ते / अभीइनक्खत्ते तितारे पन्नत्ते / सवणनक्खत्ते तितारे पन्नत्ते। अस्सिणिनक्खत्ते तितारे पन्नत्ते / भरणीनक्खत्ते तितारे पन्नते। मृगशिर नक्षत्र तीन तारावाला कहा गया है। पुष्य नक्षत्र तीन तारावाला कहा गया है / ज्येष्ठा नक्षत्र तीन तारावाला कहा गया है / अभिजित् नक्षत्र तीन तारावाला कहा गया है / श्रवण नक्षत्र तीन तारावाला कहा गया है। अश्विनी नक्षत्र तीन तारावाला कहा गया है। भरणी नक्षत्र तीन तारावाला कहा गया है। १७-इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं रइयाणं तिणि पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता / दोच्चाए णं पुढवीए रइयाणं उक्कोसेणं तिणि सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता / तच्चाए णं पुढवीए रइयाणं जहण्णणं तिण्णि सागरोवमाइं ठिई पन्नता। इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकियों की स्थिति तीन पल्योपम कही गई है / दूसरी शर्करा पृथिवी में नारकियों की उत्कृष्ट स्थिति तीन सागरोपम कही गई है / तीसरी वालुका पृथिवी में नारकियों की जघन्य स्थिति तीन सागरोपम कही गई है। १८-असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं तिणि पलिओवमाई ठिई पन्नता। असंखिज्जवासाउयसन्निपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं उक्कोसेणं तिग्णि पलिग्रोवमाडं ठिई पन्नत्ता। असंखिज्जवासाउयसन्निगब्भवक्कंतियमणुस्साणं उक्कोसेणं तिणि पलिनोवमाइं ठिई पन्नत्ता। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति तीन पल्योपम कही गई है। असंख्यात वर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीवों की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम कही गई है। असंख्यात वर्षायुष्क संज्ञी गर्भोपक्रान्तिक मनुष्यों की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम कही गई है। १९-सणंकुमार-माहिदेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं तिणि सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता। जे देवा आभंकरं पभंकरं आभंकर-पभंकरं चंदं चंदावत्तं चंदप्पभं चंदकंतं चंदवण्णं चंदलेसं चंदज्झयं चंदसिंग चंदसिटुं चंदकडं चंदुत्तरडिसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं तिणि सागरोवमाइं ठिई पन्नता, ते गं देवा तिण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा, ऊससंति बा, नीससंति वा, तेसि णं देवाणं तिहि वाससहस्सेहिं आहार? समुप्पज्जइ / संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे तिहिं भवग्गहहिं सिज्झिस्संति, बुज्झिस्संति, मुच्चिस्संति, परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / सनत्कुमार-माहेन्द्रकल्पों में कितनेक देवों की स्थिति तीन सागरोपम कही गई है। जो देव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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