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________________ चतुःस्थानक समवाय ] आभंकर, प्रभंकर, प्राभंकर-प्रभंकर, चन्द्र, चन्द्रावर्त, चन्द्रप्रभ, चन्द्रकान्त, चन्द्रवर्ण, चन्द्रलेश्य, चन्द्रध्वज, चन्द्रशृग, चन्द्रसुष्ट, चन्द्रकट और चन्द्रोत्तरावतंसक नाम वाले विशिष्ट विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति तीन सागरोपम कही गई है / वे देव तीन अर्धमासों में (डेढ़ मास में) प्रान-प्राण अर्थात् उच्छ्वास-नि:श्वास लेते हैं। उन देवों को तीन हजार वर्ष में आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो तीन भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण प्राप्त करेंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। // त्रिस्थानक समवाय समाप्त // चतु:स्थानक-समवाय २०-चत्तारि कसाया पन्नता, तं जहा--कोहकसाए माणकसाए मायाकसाए लोभकसाए / चत्तारि झाणा पन्मत्ता, तं जहा—अदृज्झाणे रुद्दज्झाणे धम्मज्झाणे सुक्कज्झाणे। चत्तारि विकहाओ प्रो. तं जहा-इथिकहा भत्तकहा रायकहा देसकहा / चत्तारि सण्णा पन्नता, तं जहा-आहारसण्णा भयसण्णा मेहुणसण्णा परिग्गहसण्णा / चउविहे बंधे पन्नत्ते, तं जहा-पगइबंधे ठिइबंधे अणुभावबंधे पएसबंधे / चउगाउए जोयणे पन्नते। चार कषाय कहे गये हैं-क्रोधकषाय, मानकषाय, मायाकषाय, लोभकषाय / चार ध्यान कहे गये हैं --प्रार्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्म्यध्यान, शुक्लध्यान / चार विकथाएं कही गई हैं / जैसे-- स्त्रीकथा, भक्तकथा, राजकथा, देशकथा / चार संज्ञाएं कही गई हैं। जैसे-पाहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा / चार प्रकार का बन्ध कहा गया है। जैसे-प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभावबन्ध, प्रदेशबन्ध / चार गव्यूति का एक योजन कहा गया है। विवेचन-जो आत्मा को कसे, ऐसे संसार बढ़ाने वाले विकारी भावों को कषाय कहते हैं। चित्त को एकाग्रता को ध्यान कहते हैं / यह एकाग्रता जब इष्ट-वियोग, अनिष्ट-संयोगादि के होने पर उनके दूर करने के रूप में होती है, तब उसे प्रार्तध्यान कहते हैं। जब वह एकाग्रता हिंसादि पाप करने में होती है, तब उसे रौद्रध्यान कहते हैं / जब वह एकाग्रता जिन-प्रवचन के प्रचार, दया, दान, परोपकार ग्रादि करने में होती है, तब उसे धर्म्यध्यान कहते हैं और जब यह एकाग्रता सर्वशुभ-अशुभ भावों से निवत्त होकर एकमात्र शुद्ध चैतन्य स्वरूप में स्थिरता रूप होती है, तब उसे शूक्लध्यान कहते हैं / शुक्लध्यान मोक्ष का साक्षात् कारण है और धर्म्यध्यान परम्परा कारण है / आर्तध्यान और रौद्रध्यान संसार-बन्धन के कारण हैं। राग-द्वेषवर्धक निरर्थक कथाओं को विकथा कहते हैं। इन्द्रियों की विषय-प्रवृत्ति को संज्ञा कहते हैं। कर्मों के स्वभाव, स्थिति, फल-प्रदानादि रूप से प्रात्मा के साथ संबद्ध होने को बंध कहते हैं / प्रस्तुत सूत्रों में इनके चार-चार भेदों को गिनाया गया है। चार कोश या गव्यूति को योजन कहते हैं। 21-- अणुराहानक्खत्ते चउत्तारे पन्नत्ते, पुन्धासाढानक्खत्ते चउत्तारे पन्नत्ते / उत्तरासादानक्खत्ते चउत्तारे पन्नते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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