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________________ 12] [समवायाङ्गसूत्र अनुराधा नक्षत्र चार तारावाला कहा गया है। पूर्वाषाढा नक्षत्र चार तारावाला कहा गया है / उत्तराषाढा नक्षत्र चार तारावाला कहा गया है। २२–इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं चत्तारि पलिओवमाई ठिई पन्नत्ता / तच्चाए णं पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं चत्तारि सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता / असुरकुमाराणं देवाणं अत्यंगइयाणं चत्तारि पलिनोवमाइं ठिई पानत्ता / सोहम्मोसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं चत्तारि पलिश्रोवमाई ठिई पण्णत्ता। इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति चार पल्योपम की कही गई है। तीसरी बालुकाप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति चार सागरोपम कही गई है / कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति चार पल्योपम की कही गई है। सौधर्म-ईशानकल्पों में कितनेक देवों की स्थिति चार पल्योपम की है। २३-सणंकुमार-माहिदेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं चत्तारि सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता / जे देवा किट्टि सुकिट्रि किट्टियावत्तं किट्रिप्पभं किद्विजुत्तं किट्टिवणं किट्टिलेस किट्टिज्झयं किदिसिंग किट्टिसिट्ठ किटिकूडं किठ्ठत्तरडिसगं विमाणं देवत्ताए उववष्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता। ते णं देवा चउण्हं अद्धमासाणं प्राणमंति वा पाणमंति वा, ऊससंति वा नीससंति वा / तेसि देवाणं चहि वाससहस्सेहि आहार? समुप्पज्जइ। ___ अत्थेगइया भवसिद्धिया जीवा जे चहिं भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / सनत्कुमार-माहेन्द्र कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति चार सागरोपम है। इन कल्पों के जो , सुकृष्टि, कृष्टि-ग्रावर्त, कृष्टिप्रभ, कृष्टियुक्त, कृष्टिवर्ण, कृष्टिलेश्य, कृष्टिध्वज, कृष्टिशृग, कृष्टिसृष्ट, कृष्टिकूट, और कृष्टि-उत्तरावतंसक नाम वाले विशिष्ट विमानों में देव रूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति चार सागरोपम कही गई है। वे देव चार अर्धमासों (दो मास) में प्रान-प्राण या उच्छ्वास-निःश्वास लेते हैं / उन देवों के चार हजार वर्ष में आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्य-सिद्धिक जीव ऐसे हैं जो चार भवग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। // चतुःस्थानक समवाय समाप्त // पंचस्थानक-समवाय 25 –पंच किरिया पन्नत्ता, तं जहा-काइया अहिंगरणिया पाउसिया पारितावणिआ पाणाइवायकिरिया। पंच महव्वया पन्नत्ता, तं जहा-सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं, सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं, सव्वानो अदिन्नादाणाओ वेरमणं, सव्वाओ मेहुणाओ वेरमणं, सवाओ परिग्गहाओ वेरमणं / देव कृष्टि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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