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________________ पंचस्थानक समवाय] . क्रियाएं पांच कही गई हैं। जैसे - कायिकी क्रिया, प्राधिकरणिकी क्रिया, प्राद्वेषिकी क्रिया, पारितापनिकी क्रिया, प्राणातिपात क्रिया। पांच महाव्रत कहे गये हैं। जैसे—सर्व प्राणातिपात से विरमण, सर्वमृषावाद से विरमण, सर्व अदत्तादान से विरमण, सर्व मैथुन से विरमण, सर्व परिग्रह से विरमण / विवेचन–मन वचन काय के व्यापार-विशेष को क्रिया कहते हैं। शरीर से होने वाली चेष्टा को कायिकी क्रिया कहते हैं। हिंसा के अधिकरण खङ्ग, भाला, बन्दूक आदि के निर्माण प्रादि करने की क्रिया को प्राधिकरणिकी क्रिया कहते हैं / प्रद्वेष या मत्सरभाव वाली क्रिया को प्राद्वेषिकी क्रिया कहते हैं। प्राणियों को ताड़न-परितापन प्रादि पहुंचाने वाली क्रिया को पारितापनिकी क्रिया कहते हैं / जीवों के प्राण-घात करने वाली क्रिया को प्राणातिपातिकी क्रिया कहते हैं। सर्व प्रकार की हिंसा का त्याग करना पहला महाव्रत है / सर्व प्रकार के असत्य बोलने का त्याग करना दूसरा महावत है / सर्व प्रकार के प्रदत्त का त्याग करना अर्थात् बिना दी हुई किसी भी वस्तु का ग्रहण नहीं करना तीसरा महावत है / देव, मनुष्य और पशु सम्बन्धी सर्व प्रकार के मैथुन-सेवन का त्याग करना चौथा महाव्रत है / सभी प्रकार के परिग्रह (ममत्व) का त्याग करना पांचवां महाव्रत है / 26 - पंच कामगुणा पन्नत्ता, तं जहा. - सद्दा रूवा रसा गंधा फासा। पंच आसवदारा पन्नता, तं जहा-मिच्छत्तं अविरई पमाया कसाया जोगा। पंच संवरदारा पन्नत्ता, तं जहा-सम्मत्तं विरई अप्पमत्तया अकसाया अजोगया। पंच णिज्जरट्ठाणा पन्नत्ता, तं जहा-पाणाइवायाओ वेरमणं, मुसावायाओ वेरमणं, अदिन्नादाणाओ वेरमणं, मेहुणाओ वेरमणं, परिग्गहाओ वेरमणं / पंच समिईओ पन्नत्ताओ, तं जहा-ईरियासमिई भासासमिई एसणासमिई आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिई, उच्चारपासवण-खेल-सिंघाण-जल्लपारिट्ठावणियासमिई। इन्द्रियों के विषयभूत कामगुण पांच कहे गये हैं / जैसे-श्रोत्रेन्द्रिय का विषय शब्द, चक्षुरिन्द्रिय का विषय रूप, रसनेन्द्रिय का विषय रस, घ्राणेन्द्रिय का विषय गन्ध और स्पर्शनेन्द्रिय का विषय स्पर्श। कर्मबंध के कारणों को प्रास्रवद्वार कहते हैं। वे पांच हैं / जैसे---मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग / कर्मों का प्रास्रव रोकने के उपायों को संवरद्वार कहते हैं। वे भी पांच कहे गये हैं—सम्यक्त्व, विरति, अप्रमत्तता अकषायता और अयोगता या योगों की प्रवृत्ति का निरोध / संचित कर्मों की निर्जरा के स्थान, कारण या उपाय पांच कहे गये हैं / जैसे-प्राणातिपात-विरमण, मृषावादविरमण, अदत्तादान-विरमण, मैथन-विरमण, परिग्रह-विरमण / संयम की साधक प्रवत्ति या यतनापूर्वक की जाने वाली प्रवृत्ति को समिति कहते हैं। वे पांच कही गई हैं--गमनागमन में सावधानी रखना ईर्यासमिति है। वचन-बोलने में सावधानी रखकर हित मित प्रिय वचन बोलना भाषा समिति है। गोचरी में सावधानी रखना और निर्दोष, अनुद्दिष्ट भिक्षा ग्रहण करना एषणासमिति है / संयम के साधक वस्त्र, पात्र, शास्त्र आदि के ग्रहण करने और रखने में सावधानी रखना आदानभांड-मात्र निक्षेपणा समिति है। उच्चार (मल), प्रस्रवण (मूत्र), श्लेष्म (कफ), सिंघाण (नासिकामल) और जल्ल (शरीर का मैल) परित्याग करने में सावधानी रखना पांचवीं प्रतिष्ठापना समिति है। २७—पंच अस्थिकाया पन्नत्ता, तं जहा -धम्मस्थिकाए अधम्मस्थिकाए आगासस्थिकाए जीवत्थिकाए पोग्गलत्थिकाए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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