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________________ [समवायाङ्गसूत्र पाच अस्तिकाय द्रव्य कहे गये हैं। जैसे-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय / विवेचन-बहुप्रदेशी द्रव्य को अस्तिकाय कहते हैं / स्वयं गमन करते हुए जीव और पुद्गलों के गमन करने में सहकारी द्रव्य को धर्मास्तिकाय कहते हैं / स्वयं ठहरनेवाले जीव और पुद्गलों के ठहरने में सहकारी द्रव्य को अधर्मास्तिकाय कहते हैं / सर्व द्रव्यों को अपने भीतर अवकाश प्रदान करने वाले द्रव्य को प्राकाशास्तिकाय कहते हैं / चैतन्य गुण वाले द्रव्य को जीवास्तिकाय कहते हैं। रूप, रस, गन्ध और स्पर्श वाले द्रव्य को पुद्गलास्तिकाय कहते हैं / इनमें से प्रारम्भ के दो द्रव्य असंख्यात प्रदेश वाले हैं। आकाश अनन्तप्रदेशी है / एक जीव के प्रदेश असंख्यात हैं। पुद्गल द्रव्य के संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश होते हैं। २८-रोहिणीनवखत्ते पंचतारे पन्नत्ते / पुणव्वसुनक्खत्ते पंचतारे पन्नत्ते / हत्थनक्खत्ते पंचतारे पन्नते, विसाहानक्खत्ते पंचतारे पन्नत्ते, धणिट्ठानक्खत्ते पंचतारे पन्नत्ते / रोहिणी नक्षत्र पांच तारावाला कहा गया है। पुनर्वसु नक्षत्र पांच तारावाला कहा गया है / हस्त नक्षत्र पांच तारावाला कहा गया है / विशाखा नक्षत्र पांच तारावाला कहा गया है, धनिष्ठा नक्षत्र पांच तारावाला कहा २९-इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं पंच पलिओव माई ठिई पन्नत्ता / तच्चाए णं पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं पंच सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता। असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं पंच पलिओवमाई ठिई पन्नत्ता। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं / पंच पलिओवमाइंठिई पन्नत्ता। इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति पांच पल्योपम कही गई है। तीसरी वालुकाप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति पांच सागरोपम कही गई है / सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति पांच पल्योपम कही गई है। ३०–सणंकुमार-माहिदेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं पंच सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता / जे देवा वायं सुवायं वायावत्तं वायप्पभं वायकंतं वायवण्णं वायलेसं वायज्झयं वायसिंगं वायसिह्र वायकूडं वाउत्तरडिसगं सूरं सुसूरं सूरावत्तं सूरप्पभं सूरकंतं सूरवण्णं सूरलेसं सूरज्झयं सूरसिंग सूरसिठं सूरकडं सूरुत्तरडिसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं पंच सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता / ते णं देवा पंचण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा, ऊससंति वा नीससंति वा, तेसि णं देवाणं पंचहि वाससहस्सेहिं आहारठे समुप्पज्जइ। ___ संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे पंचहि भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / सनत्कुमार-माहेन्द्र कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति पांच सागरोपम कही गई है / जो देव वात, सुवात, वातावर्त, वातप्रभ, वातकान्त, वातवर्ण, वातलेश्य, वातध्वज, वातशृग, वातसृष्ट, वातकूट, वातोत्तरावतंसक, सूर, सुसूर, सूरावर्त, सूरप्रभ, सूरकान्त, सूरवर्ण, सूरलेश्य, सूरध्वज, सूरशृग, सूरसृष्ट, सूरकूट और सूरोत्तरावतंसक नाम के विशिष्ट विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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