________________ त्रिस्थानक समवाय] अत्थेगइया भवसिद्धिया जीवा जे दोहि भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिवाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / जो देव शुभ, शुभकान्त, शुभवर्ण, शुभगन्ध, शुभलेश्य, शुभस्पर्शवाले सौधर्मावतंसक विशिष्ट विमानों में देव रूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति दो सागरोपम कही गई है / वे देव दो अर्धमासों में (एक मास में) पानप्राण या उच्छ्वास-निःश्वास लेते हैं। उन दो देवों के दो हजार वर्ष में ग्राहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो दो भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। // द्विस्थानक समवाय समाप्त // त्रिस्थानक-समवाय १५-तम्रो दंडा पण्णत्ता, तं जहा-मणदंडे क्यदंडे कायदंडे / तओ गुत्तीरो पन्नत्ताओ, तं जहा-मणगुत्ती, वयगुत्ती, कायगुत्ती / तओ सल्ला पन्नत्ता / तं जहा--- मायासल्ले णं नियाणसल्ले णं मिच्छादसणसल्ले णं / तमो गारवा पन्नत्ता, तं जहा-इद्धीगारवे णं रसगारवे णं सायागारवे णं / तओ विराहणा पन्नत्ता, तं जहा-नाणविराहणा दंसणविराहणा चरित्तविराहणा। तीन दंड कहे गये हैं, जैसे—मनदंड, वचनदंड, कायदंड / तीन गुप्तियाँ कही गई हैं, जैसेमनगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति / तीन शल्य कही गई हैं, जैसे-मायाशल्य, निदानशल्य, मिथ्यादर्शनशल्य / तोन गौरव कहे गये हैं, जैसे-ऋद्धिगौरव, रसगौरव, सातागौरव / तीन विराधना कही गई हैं, जैसे-ज्ञानविराधना, दर्शनविराधना, चारित्रविराधना / विवेचन --जिसके द्वारा चारित्र रूप ऐश्वर्य निःसार किया जावे, उसे दंड कहते हैं। मन, वचन, काय की खोटी प्रवृत्ति के द्वारा चरित्र नष्ट होता है, अतः दंड के तीन भेद कहे गये हैं / यतः मन वचन काय की अशुभ प्रवृत्ति के रोकने को, एवं शुभ प्रवृत्ति के करने को गुप्ति कहते हैं, अतः गुप्ति के भी तीन भेद कहे गये हैं। जो शरीर में चभे हए-भीतर ही भीतर प्रविष्ट वाण आदि के समान अन्तरंग में दुःख का वेदन करावें उन्हें शल्य कहते हैं। मायाचारी की माया उसे भीतर पीड़ित करती रहती है कि कहीं मेरी माया या छल-छद्म प्रकट न हो जावे। दूसरी शल्य निदान है। देवादिक के ऋद्धि-वैभवादि को देख कर अपनी तपस्या के फलस्वरूप उनकी कामना करने को निदान कहते हैं / निदान करने वाले का चित्त सदा उन सुखादि को पाने की लालसा से निरन्तर सन्तप्त रहता है, इसलिए निदान को भी शल्य कहा है। तीसरी शल्य मिथ्यादर्शन है। इसके प्रभाव से जीव सदा ही परवस्तुओं को प्राप्त करने की अभिलाषा से बेचैन रहता है। पर-वस्तु की चाह करना मिथ्यादर्शन है इसीलिए इसे शल्य कहा गया है। अभिमान, लोभ आदि के द्वारा अपनी आत्मा को गुरु या भारी बनाने को गौरव कहते हैं। ऋद्धि-वैभवादि के द्वारा अपने को गौरवशाली मानना ऋद्धिगौरव कहलाता है / घी, दूध, मिष्ट आदि रसों के खाये विना मैं नहीं रह सकता, अत: उनके खाने-पीने में गौरव का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org