________________ षटस्थानक समवाय] [17 अर्थावग्रह छह प्रकार का कहा गया है। जैसे श्रोत्रेन्द्रिय-अर्थावग्रह, चक्षुरिन्द्रिय-अर्थावग्रह, घ्राणेन्द्रिय-अर्थावग्रह, जिह्वन्द्रिय-अर्थावग्रह, स्पर्शनेन्द्रिय-अर्थावग्रह और नोइन्द्रिय-अर्थावग्रह / विवेचन -किसी पदार्थ को जानने के समय दर्शनोपयोग के पश्चात् जो अव्यक्त रूप सामान्य बोध होता है, वह व्यञ्जनावग्रह कहलाता है। उसके तत्काल बाद जो अर्थ का ग्रहण या वस्तु का सामान्य ज्ञान होता है, उसे अर्थावग्रह कहते हैं / यह अर्थावग्रह श्रोत्र आदि पांच इन्द्रियों से और नोइन्द्रिय अर्थात् मन से उत्पन्न होता है, अत: उसके छह भेद हो जाते हैं। किन्तु व्यजनावग्रह चार प्रकार का ही होता है, क्योंकि वह चक्षुरिन्द्रिय और मन से नहीं होता क्योंकि यह दोनों अप्राप्यकारी हैं, इनका ग्राह्य पदार्थ के साथ संयोग नहीं होता है। अर्थावग्रह के पश्चात् ही ईहा, अवाय आदि ज्ञान उत्पन्न होते हैं। ३४–कत्तियाणक्खत्ते छतारे पण्णत्ते / असिलेसानखत्ते छतारे पण्णत्ते / कृत्तिका नक्षत्र छह तारा वाला कहा गया है / प्राश्लेषा नक्षत्र छह तारा वाला कहा गया है। 35.- इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाण छ पलिनोवमाई ठिई पण्णत्ता। तच्चाए णं पुढवीए प्रत्येगइयाणं नेरइयाणं छ सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / असुरकुमाराणं देवाणं अस्थेगइयाणं छ पलिओवमाई ठिई पण्णता / सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं छ पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति छह पल्योपम कही गई है। तीसरी बालुका प्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति छह सागरोपम कही गई है। कितनेक असुर कुमारों की स्थिति छह पल्योपम कही गई है। सौधर्म ईशान कल्पों में कितने देवों की स्थिति छह पल्योपम कही गई है। ३६-सणंकुमार-माहिदेसु [कप्पेसु] अत्थेगइयाणं देवाणं छ सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / जे देवा सयंभुसयंभुरमणं घोसं सुघोसं महाघोस किट्रिघोसं वीरं सुवीरं वीरगतं वीरसेणियं वीराक्तं वीरप्पभं वीरकंतं वीरवण्णं वीरलेसं वीरज्झयं वीरसिंग वीरसिळं वोरकूडं वीरुत्तरडिसंगं विमाणं देवत्ताए उबवण्णा तेसिं गं देवाणं उक्कोसेणं छ सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / तेणं देवा छण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पागसंति वा, ऊससंति वा नीससंति वा, सि णं देवाणं हि वाससहस्सेहि आहारट्ठे समुपज्जइ। संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे छहिं भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति छह सागरोपम कही गई है। उनमें जो देव स्वयम्भू, स्वम्भूरमण, घोष, सुघोष, महाघोष, कृष्टिघोष, वीर, सुवीर, वीरगत, वीरश्रेणिक, वीरावर्त, वीरप्रभ, वीरकांत, वीरवर्ण, वीरलेश्य, वीरध्वज, वीरग, वीरसृष्ट, वीरकूट और वोरोत्तरावतंसक नाम के विशिष्ट विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों को उत्कृष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org