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________________ त्रिषष्टिस्थानक समवाय] [123 द्विषष्टिस्थानक-समवाय ३१७--पंच संवच्छरिए णं जुगे वाढि पुन्निमाओ वाढि अमावसाओ पण्णताओ। पंचसांवत्सरिक युग में बासठ पूर्णिमाएं और बासठ अमावस्याएं कही गई हैं / विवेचन-चन्द्रमास के अनुसार पाँच वर्ष के काल को युग कहते हैं / इस एक युग में दो मास अधिक होते हैं। इसलिए दो पूर्णिमा और अमावस्या भी अधिक होती हैं। इसे ही ध्यान में रखकर एक युग में वासठ पूर्णिमाएं और वासठ अमावस्याएं कही गई हैं। 318 -वासुपुज्जस्स णं अरहो वाढि गणा, वाढि गणहरा होत्था। वासुपूज्य अर्हन् के बासठ गण और वासठ गणधर कहे गये हैं। ___319 -सुक्कपक्खस्स णं चंदे वाट्टि भागे दिवसे दिवसे परिवडइ। ते चेव बहुलपक्खे दियसेदिवसे परिहाय शुक्लपक्ष में चन्द्रमा दिवस-दिवस (प्रतिदिन) बासठवें भाग प्रमाण एक-एक कला से बढ़ता और कृष्ण पक्ष में प्रतिदिन इतना ही घटता है / 320 –सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु पढमे पत्थडे पढमावलियाए एगमेगाए दिसाए वाट्टि विमाणा पण्णता / सव्वे वेमाणियाणं वासट्टि विमाणपत्थडा पत्थडग्गेणं पण्णत्ता। सौधर्म और ईशान इन दो कल्पों में पहले प्रस्तट में पहली प्रावलिका (श्रेणी) में एक-एक दिशा में वासठ-वासठ विमानावास कहे गये हैं। सभी वैमानिक विमान-प्रस्तट प्रस्तटों की गणना से वासठ कहे गये हैं। द्विषष्टिस्थानक समवाय समाप्त।। त्रिषष्टिस्थानक-समवाय ३२१–उसभे णं अरहा कोसलिए तेसट्टि पुब्वसयसहस्साई महारायमझे वसित्ता मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए। कौलिक ऋषभ अर्हन तिरेसठ लाख पूर्व वर्ष तक महाराज के मध्य में रहकर अर्थात् राजा के पद पर आसीन रहकर फिर मुडित हो अगार से अनगारिता में प्रवजित हुए / 322- हरिवास-रम्मयवासेसु मणुस्सा तेवढ़िए राइदिएहि संपत्तजोव्वणा भवंति / हरिवर्ष और रम्यक् वर्ष में मनुष्य तिरेसठ रात-दिनों में पूर्ण यौवन को प्राप्त हो जाते हैं, अर्थात् उन्हें माता-पिता द्वारा पालन की अपेक्षा नहीं रहती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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