________________ 122] [समवायाङ्गसूत्र ३१०-लवणस्स णं समुदस्स ट्ठि नागसाहस्सीओ अग्गोदयं धारंति / लवण समुद्र के अग्रोदक (सोलह हजार ऊंची वेला के ऊपर वाले जल) को साठ हजार नागराज धारण करते हैं। ३११—विमले णं अरहा सटुिं धणूई उड्ढं उच्चत्तणं होत्था / विमल अहंन साठ धनुष ऊंचे थे। ३१२–बलिस्स णं वइरोणिवस्स ट्रि सामाणियसाहस्सीओ पण्णत्ताओ। बंभस्स णं देविदस्स देवरन्नो सट्टि सामाणियसाहस्सोमो पण्णत्ताओ। बलि वैरोचनेन्द्र के साठ हजार सामानिक देव कहे गये हैं / ब्रह्म देवेन्द्र देवराज के साठ हजार सामानिक देव कहे गये हैं। ३१३-सोहम्मीसाणेसु दोसु कय्येसु सढि विमाणा वाससयहस्सा पण्णत्ता। सौधर्म और ईशान इन दो कल्पों में साठ (32 / 28-60) लाख विमानावास कहे गये हैं / ॥षष्टिस्थानक समवाय समाप्त / एकषष्टिस्थानक-समवाय ३१४–पंचसंवच्छरियस्स णं जुगस्स रिउमासेणं मिज्जमाणस्स इगट्टि उउमासा पण्णता। पंचसंवत्सर वाले युग के ऋतु-मासों से गिनने पर इकसठ ऋतु मास होते हैं। ३१५–मंदरस्स णं पव्वयस्स पढमे कंडे एगसटिजोयणसहस्साई उड्ढे उच्चत्तेणं पण्णत्ते / मन्दर पर्वत का प्रथम काण्ड इकसठ हजार योजन ऊंचा कहा गया है / ३१६-चंदमंडले णं एगसटिविभागविभाइए समसे पण्णत्ते / एवं सूरस्स वि। चन्द्रमंडल विमान एक योजन के इकसठ भागों से विभाजित करने पर पूरे छप्पन भाग प्रमाण सम-अंश कहा गया है / इसी प्रकार सूर्य भी एक योजन के इकसठ भागों से विभाजित करने पर परे अड़तालीस भाग प्रमाण सम-अंश कहा गया है। अर्थात इन दोनों के विस्तार का प्रमाण 56 और 48 इस सम संख्या रूप ही है, विषम संख्या रूप नहीं है और न एक भाग के भी अन्य कुछ अंश अधिक या हीन भाग प्रमाण ही उनका विस्तार है। // एकषष्टिस्थानक समवाय समाप्त / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org