________________ बत्तीसवें समवाय के प्रथम सूत्र में योगसंग्रह के बत्तीस प्रकार बताये हैं, उत्तराध्ययन७४७ में भी उनकी सूचना है। तेतीसवें समवाय के प्रथम सूत्र में तेतीस आशातनाओं का नाम-निर्देश है तो उत्तराध्ययन 748 में भी इनका सुचन किया गया है। छत्तीसवें समवाय के प्रथम सूत्र में उत्तराध्ययन के छत्तीस अध्ययनों के नाम आये हैं / 746 उनहत्तरवें समवाय के तीसरे सूत्र में मोहनीय कर्म को छोड़कर शेष सात मूल कर्म-प्रकृतियों की उनहत्तर उत्तर कर्म-प्रकृतियाँ बतायी हैं / यह वर्णन उत्तराध्ययन७५० में भी प्राप्त है। सत्तरहवें समवाय के चौथे सूत्र के अनुसार मोहनीय कर्म की स्थिति, अबाधाकाल सात-हजार वर्ष छोड़कर सत्तर कोटाकोटि सागरोपम की बतायी है। उत्तराध्ययन में यही वर्णन मिलता है। सत्तासीवें समवाय के पांचवें सूत्र के अनुसार प्रथम और अन्तिम को छोड़कर छह मूल कर्मप्रकृतियों की सत्तासी उत्तरप्रकृतियां होती हैं, यही वर्णन उत्तराध्ययन 752 में भी है। सत्तानवें समवाय के तीसरे सूत्र के अनुसार आठ मूल कर्म-प्रकृतियों की सत्तानवे उत्तरकर्म-प्रकृतियाँ हैं, यही वर्णन उत्तराध्ययन७५३ में प्राप्त है। इस तरह उत्तराध्ययन में समवायांमगत ऐसे अनेक विषय हैं, जिनकी उत्तराध्ययन में कहीं संक्षेप में और कहीं विस्तार से चर्चा मिलती है। समवायांग और अनुयोगद्वार __ मूल सूत्रों की परिगणना में अनुयोगद्वार का चतुर्थ स्थान है / अनुयोग का अर्थ है-शब्दों की व्याख्या या विवेचन करने की प्रक्रिया-विशेष / समवायांग में आये हुए अनेक विषय अनुयोगद्वार में भी प्रतिपादित हुये हैं। प्रथम समवाय के छब्बीसवें सूत्र से लेकर चालीसवें सूत्र तक जिन विषयों की चर्चा है, वे विषय अनुयोगद्वार 754 में भी चचित हैं। दूसरे समवाय के आठवें सूत्र से लेकर बीसवें समवाय तक जिन-जिन विषयों की चर्चा की गयी है, वे अनुयोगद्वार 715 में चर्चित हुये हैं। तृतीय समवाय के तेरहवें सूत्र से लेकर इक्कीसवें सूत्र तक जिन विषयों का उल्लेख किया गया है वे विषय अनुयोगद्वार 56 में भी आये हैं। 747. उत्तराध्ययन-अ. 31 748. उत्तराध्ययन-अ. 31 749. उत्तराध्ययन-अ.१ से 36 तक 750. उत्तराध्ययन-अ.३३ 751. उत्तराध्ययन-अ. 33 गा. 31 752. उत्तराध्ययन-अ. 33 753. उत्तराध्ययन-अ. 33 754. अनुयोगद्वार सूत्र-सू. 139 755. अनुयोगद्वार सूत्र--सू. 139 756. अनुयोगद्वार सूत्र-सू. 139, 140 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org