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________________ है। विश्व रचना के सिद्धान्त के साथ उसमें उच्चकोटि का गणित एवं ज्योतिषविज्ञान भी मिलता है। सूर्यप्रज्ञप्ति में गणित और ज्योतिष पर गहराई से विचार किया गया है, प्रतः सूर्यप्रज्ञप्ति के अध्ययन के बिना भारतीय ज्योतिष के इतिहास को सही रूप से नहीं समझा जा सकता / हम यहां पर संक्षेप में समवायांग में आये हुए विषयों के साथ सूर्यप्रज्ञप्ति की तुलना करेंगे। समवायांग के प्रथम समवाय में तेवीस, चौवीस और पच्चीसवें मूत्र में जिन आर्द्रा, चित्रा और स्वाति नक्षत्रों का वर्णन है, वह वर्णन सूर्यप्रज्ञप्ति में भी है। दूसरे समवाय के चौथे से सातवें समवाय तक पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, पूर्वा भाद्रपदा, उत्तराभद्रपदा के तारों का वर्णन है। वह सूर्यप्रज्ञप्ति 6 3 में भी प्राप्त है। तीसरे समवाय के छठे सूत्र से लेकर बारहवें सूत्र तक मृगशिर, पुष्य, जेष्ठा, अभिजित, श्रवण, अश्विनी, भरणी आदि नक्षत्रों का वर्णन सूर्यप्रज्ञप्ति में भी मिलता है। चौथे समवाय के सातवें, आठवें और नौवें सूत्र में अनुराधा, पूर्वाषाढा और उत्तराषाढा नक्षत्रों के चार तारों का वर्णन है, सूर्यप्रज्ञप्ति६६५ में भी उन तारों का वर्णन दर्शनीय है। पांचवें समवाय के नौवें सूत्र से लेकर तेरहवें सूत्र तक रोहिणी, पूनर्वसू, हस्त, विशाखा, धनिष्ठा नक्षत्रों के पांच-पांच तारों का वर्णन है, सूर्यज्ञप्रप्ति में भी वह वर्णन इसी तरह मिलता है। छठे ममवाय के सातवें एवं आठवें सूत्र में कृत्तिका, अश्लेषा नक्षण के छह-छह तारे बताये हैं तो सूर्यप्रज्ञप्ति में भी उनका उल्लेख है। सातवें समवाय के सातवें सूत्र से लेकर ग्यारहवें सूत्र तक मघा, कृत्तिका, अनुराधा और धनिष्ठा नक्षत्रों के तारे तथा उनके द्वारों का वर्णन है तो सूर्यप्रज्ञप्ति में भी बह मिलता है। आठवें समवाय के नौवें सूत्र में "अनवखत्ता चंदेणं......."है तो सूर्यप्रज्ञप्ति६६६ में भी चन्द्र के साथ प्रमर्द योग करने वाले कृत्तिका, रोहिणी, पुनर्वसु, मघा, चित्ता, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा इन आठ नक्षत्रों का वर्णन है / नोवें समवाय के पांचवें, छठे, और सातवें सूत्र में अभिजित नक्षत्र का चन्द्र के साथ योग होने का वर्णन है तथा रत्नप्रभा पृथ्वी से नौ सौ योजन ऊँचे तारा है, यह वर्णन सूर्यप्रज्ञप्ति७०० में भी है / समवायांग और सूर्यप्रज्ञप्ति 691. He who has a thorough knowledge of the structure of the world cannot but admire the inward logic and harmony of Jain ideas. Hand in hand with refined casmographical ideas goes a high standard of Astronomy and Mathematics. A history of Indian Astronomy is not conceivable without the famous "Surya Pragyapati." --Dr. Schubring. सूर्यप्रज्ञप्ति-प्राभत 10, प्रा. 9 सूर्यप्रज्ञप्ति-प्राभूत 10, प्रा. 9, सूत्र 42 सूर्यप्रज्ञप्ति-प्राभृत 10, प्रा. 9, सूत्र 42 695. सूर्यप्रज्ञप्ति-प्राभत 10, प्रा. 9, सूत्र 42 696. सूर्यप्रज्ञप्ति-प्राभृत 10, प्रा. 9, सूत्र 42 697. सूर्यप्रज्ञप्ति-प्राभृत 10, प्रा. 9, सूत्र 42 698. सूर्यप्रज्ञप्ति-प्राभृत 10, प्रा. 9, सूत्र 42 699. सूर्यप्रज्ञप्ति-प्राभृत 10, प्रा. 9, सूत्र 42 700. सूर्यप्रज्ञप्ति-प्राभूत 10, प्रा. 11, सूत्र 44 [ 101 ] .. 694. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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