________________ द्विसप्ततिस्थानक समवाय] [131 ३५४---समणे भगवं महावीरे वावरि वासाइं सव्वाउयं पालइत्ता सिद्ध बुद्धे जाव सबदुक्खप्पहीणे / थेरे णं अयलभाया बावत्तरि वासाउयं पालइत्ता सिद्ध बुद्धे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे / श्रमण भगवान् महावीर बहत्तर वर्ष की सर्व आयु भोग कर सिद्ध, बुद्ध, कमों से मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त हो कर सर्व दुःखों से रहित हुए / स्थविर अचलभ्राता 72 वर्ष की प्रायु भोग कर सिद्ध, बुद्ध, यावत् सर्व दुःखों से रहित हुए। ३५५--अभितयुक्खरद्धे णं वावरि चंदा पभासिसु वा, पभासंति वा, पभासिस्संति वा। [एवं] वावरि सूरिया विसु वा, तवंति वा, तविस्संति वा / एगमेगस्स णं रन्नो चाउरतचक्कट्टिस्स वावत्तरिपुरवरसाहस्सीओ पण्णत्ताओ। प्राभ्यन्तर पुष्करार्ध द्वीप में बहत्तर चन्द्र प्रकाश करते थे, प्रकाश करते हैं और आगे प्रकाश करेंगे। इसी प्रकार बहत्तर सूर्य तपते थे, तपते हैं और आगे तपेंगे। प्रत्येक चातुरन्त चक्रवर्ती राजा के बहत्तर हजार उत्तम पुर (नगर) कहे गये हैं। ३५६–वावत्तरि कलाप्रो पण्णतायो / तं जहा-लेहं 1, गणियं 2, रूवं, 3, नटें 4, गोयं 5, वाइयं 6, सरगयं 7, पुक्खरगयं 8, समतालं 9, जूयं 10, जणवायं 11, पोरेकच्चं 12, अट्ठावयं 13, दगमट्टियं 14, अन्नविही 15, पाणविही 16, वत्यविही 17, सयणविही 18, अज्जं 19, पहेलियं 20, माहियं 21, गाहं 22, सिलोगं 23, गंधजुत्ति 24, मधुसित्थं 25, आभरणविही 26, तरुणीपडिकम्म क्खिणं 28, पुरिसलक्खणं 29, हयलक्खणं 30, गयलक्खणं 31, गोणलक्खणं 32, कुक्कुडलक्खणं 33, मिढयलक्खणं 34, चक्कलक्खणं 35, छत्तलक्खणं 36, दंडलक्खणं 37, असिलक्खणं 38, मणिलक्खणं 39, कागणिलक्खणं 40, चम्मलक्खणं 41, चंदचरियं 42, सूरचरियं 43, राहुचरियं 44, गहचरियं 45, सोभागकरं 46, दोभागकरं 47, विज्जागयं 48, मंतगयं 49, रहस्सगयं 50, सभासं 51, चारं 52, पडिचारं 53, बूहं 54, पडिबूहं 55, खंधावारमाणं 56, नगरमाणं 57, वत्थुमाणं 58, खंधावारनिवेसं 59, वत्थुनिवेसं 60, नगरनिवेसं 61, ईसत्थं 62, छरुष्पवायं 63, आससिक्खं 64, हत्थिसिक्खं 65, धणुव्वेयं 66, हिरण्णपागं सुवण्णपागं मणिपागं धातुपागं 67, बाहुजुद्धं दंडजुद्धं मुट्ठिजुद्धं अट्ठिजुद्धं जुद्धं निजुद्धं जुद्धाइजुद्धं 68, सुत्तखेडं नालियाखेडं बट्टखेडं धम्मखेडं चम्मखेड 69, पत्तछेज्ज कडगच्छेज्ज 70, सजीवं विज्जीवं 71, सउणिरुयं 72 / बहत्तर कलाएं कही गई हैं। जैसे१. लेखकला-लिखने की कला, ब्राह्मी प्रादि अट्ठारह प्रकार की लिपियों के लिखने का विज्ञान / 2. गणितकला-- गणना, संख्या जोड़ बाकी आदि का ज्ञान / 3. रूपकला-वस्त्र, भित्ति, रजत, सुवर्णपट्टादि पर रूप (चित्र) निर्माण का ज्ञान / 4. नाट्यकला--नाचने और अभिनय करने का ज्ञान / 5. गीतकला-गाने का चातुर्य / 6. वाद्यकला--अनेक प्रकार के बाजे बजाने की कला। 7. स्वरगतकला-अनेक प्रकार के राग-रागिनियों में स्वर निकालने की कला / 8. पुष्करगतकला-पुष्कर नामक वाद्य-विशेष का ज्ञान / 9. समतालकला-समान ताल से बजाने की कला / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org