________________ 130] [समवायाङ्गसूत्र स्थिति के अन्तिम समय में सबसे कम कर्म-दलिक निषिक्त होते हैं। ये निषिक्त कर्म-दलिक अपनाअपना समय आने पर फल देते हुए झड़ जाते हैं। यह व्वयस्था कर्मशास्त्रों के अनुसार है / किन्तु कुछ आचार्यों का मत है कि जिस कर्म की जितनी स्थिति बंधती है, उसका अबाधाकाल उससे अतिरिक्त होता है, अत: बंधी हुई पूरी स्थिति के समयों में कर्म-दलिकों का निषेक होता है / ३४९---माहिदस्स णं देविदस्स देवरन्नो सत्तरि सामाणियसाहस्सीनो पण्णत्ताओ। देवेन्द्र देवराज माहेन्द्र के सामानिक देव सत्तर हजार कहे गये हैं। सप्ततिस्थानक समवाय समाप्त / एकसप्ततिस्थानक-समवाय ३५०-चउत्थस्स णं चंदसंवच्छरस्स हेमंताणं एक्कसत्तरीए राइदिएहि वीइक्कतेहिं सव्वबाहिराओ मंडलाओ सूरिए पाउट्टि करेइ / - [पंच सांवत्सरिक युग के चतुर्थ चन्द्र संवत्सर की हेमन्त ऋतु के इकहत्तर रात्रि-दिन व्यतीत होने पर सूर्य सबसे बाहरी मण्डल (चार क्षेत्र) से आवृत्ति करता है। अर्थात् दक्षिणायन से उत्तरायण की ओर गमन करना प्रारम्भ करता है। 351 ---वीरियप्पवायस्स णं पुवस्स एक्कसरि पाहुडा पण्णत्ता। वीर्यप्रवाद पूर्व के इकहत्तर प्राभृत (अधिकार) कहे गये हैं। ३५२-अजिते णं अरहा एक्कसरि पुवसयसहस्साई अगारमझे वसित्ता मुडे भविता जाव पव्वइए। एवं सगरो वि राया चाउरंतचक्कवट्टी एक्कसरि पुच [सयसहस्साई] जाव [अगारमझे वसित्ता मुडे भवित्ता] पव्वइए। अजित अर्हन् इकहत्तर लाख पूर्व वर्ष अगार-वास में रहकर मुडित हो अगार से अनगारिता में प्रवजित हुए। इसी प्रकार चातुरन्त चक्रवर्ती सगर राजा भी इकहत्तर लाख पूर्व वर्ष अगार-वास में रह कर मुडित हो अगार से अनगारिता में प्रवजित हुए। // एकसप्ततिस्थानक समवाय समाप्त // द्विसप्ततिस्थानक-समवाय ३५३--वावर सुवन्नकुमारावाससयसहस्सा पण्णत्ता। लवणस्स समुदस्स वावरि नागसाहस्सीओ बाहिरियं वेलं धारंति / सुपर्णकुमार देवों के बहत्तर लाख आवास (भवन) कहे गये हैं। लवण समुद्र की बाहरी वेला को बहत्तर हजार नाग धारण करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org