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________________ [समवायाङ्गसूत्र वितिमिरा विसुद्धा सव्वरयणामया अच्छा सण्हा घट्टा मट्ठा णिप्पंका णिक्कंक-डच्छाया सप्पभा समरीया सउज्जोया पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा। वे विमान सूर्य की प्रभा के समान प्रभावाले हैं, प्रकाशों की राशियों (जों) के समान भासुर हैं, अरज (स्वाभाविक रज से रहित) हैं, नीरज (आगन्तुक रज से विहीन) हैं, निर्मल हैं, अन्धकाररहित हैं, विशुद्ध हैं, मरीचि-युक्त हैं, उद्योत-सहित हैं, मन को प्रसन्न करने वाले हैं, दर्शनीय हैं, अभिरूप हैं और प्रतिरूप हैं। ५९२–सोहम्मे णं भंते ! कप्पे केवइया विमाणावासा पण्णता ? गोयमा ! बत्तीसं विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता। एवं ईसाणाइसु अट्ठावीस वारस अट्ठ चत्तारि एयाई सयसहस्साई पण्णासं चत्तालीसं छ-एयाई सहस्साई प्राणए पाणए चत्तारि आरणच्चुए तिन्नि एयाणि सयाणि एवं गाहाहि भाणियब्वं / भगवन् ! सौधर्म कल्प में कितने विमानावास कहे गये हैं ? गौतम ! सौधर्म कल्प में बत्तीस लाख विमानावास कहे गये हैं / इसी प्रकार ईशानादि शेष कल्पों में सहस्रार तक क्रमशः पूर्वोक्त गाथाओं के अनुसार अट्ठाईस लाख, बारह लाख, आठ लाख चार लाख, पचास हजार, छह सौ, तथा प्रानत प्राणत कल्प में चार सौ और प्रारण-अच्युत कल्प में तीन सौ विमान कहना चाहिए। [वेयक और अनुत्तर देवों के विमान भी पूर्वोक्त गाथाङ्क 7 पृष्ठ 201 के अनुसार जानना चाहिए। ५९३---नेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता? गोयमा! जहन्नेणं दसवाससहस्साई, उक्कोसेफ तेत्तीसं सागरोबमाई ठिई पन्नत्ता। अपज्जत्तगाणं नेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता ? जहन्नेणं अंतोमुत्तं, उक्कोसेणं वि अंतोमुहत्तं / पज्जत्तगाणं जहन्नेणं दसवाससहस्साई अंतोमुहतूणाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुहत्तणाई / इमीसे णं रणयप्पभाए पुढवीए एवं जाव। भगवन् ! नारकों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? गौतम ! जघन्य स्थिति दश हजार वर्ष की और उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की कही भगवन् ! अपर्याप्तक नरकों की कितने काल तक स्थिति कही गई है ? [गौतम ! ] जघन्य भी अन्तर्मुहर्त की और उत्कृष्ट भी स्थिति अन्तर्मुहर्त की कही गई है। पर्याप्तक नारकियों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त कम दश हजार वर्ष की और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागरोपम की है। इसी प्रकार इस रत्नप्रभा पृथिवी से लेकर महातमः प्रभा पृथिवी तक अपर्याप्तक नारकियों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की तथा पर्याप्तकों की स्थिति वहाँ की सामान्य, जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति से अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त कम जानना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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