________________ विविधविषयनिरूपण] [205 ५८९-केवइया णं भंते ! जोइसियाणं विमाणावासा पण्णत्ता ? गोयमा! इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जायो भूमिभागानो सत्तनउयाई जोयणसयाई उड्ढे उप्पइत्ता एस्थ णं दसुत्तरजोयणसयबाहल्ले तिरियं जोइसविसए जोइसियाणं देवाणं असंखेज्जा जोइसियविमाणावासा पण्णत्ता / ते णं जोइसियविमाणावासा अब्भुग्गयभूसियपहसिया विविहमणिरयणभत्तिचित्ता विजय-वेजयंती-पडाग-छत्ताइछत्तकलिया तंगा गगणतलमणलिहंतसिहरा जालंतर-रयणपंजरुम्मिलियन्व मणिकणगर्थभियागा वियसिय-सयपत्त-पुण्डरीय तिलय-रयणद्धचंदचित्ता अंतो वाहिं च सण्हा तवणिज्ज-बालुआ पत्थडा सुहकासा सस्सिरीयरूवा पासाईया दरिसणिज्जा। भगवन् ! ज्योतिष्क देवों के विमानावास कितने कहे गये हैं ? गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथिवी के बहुसम रमणीय भूमिभाग से सात सौ नव्व योजन ऊपर जाकर एक सौ दश योजन बाहल्य वाले तिरछे ज्योतिष्क-विषयक प्राकाशभाग में ज्योतिष्क देवों के असंख्यात विमानावास कहे गये हैं / वे अपने में से निकलती हुई और सर्व दिशाओं में फैलती हुई प्रभा से उज्ज्वल हैं, अनेक प्रकार के मणि और रत्नों की चित्रकारी से युक्त हैं, वायु से उड़ती हुई विजय-वैजयन्ती पताकारों से और छत्रातिछत्रों से युक्त हैं, गगनतल को स्पर्श करने वाले ऊंचे शिखर वाले हैं, उनको जालियों के भीतर रत्न लगे हुए हैं। जैसे पंजर (प्रच्छादन) से तत्काल निकाली वस्तु सश्रीक-चमचमाती है वैसे ही वे सश्रीक हैं / मणि और सुवर्ण की स्तूपिकाओं से युक्त हैं, विकसित शतपत्रों एवं पुण्डरीकों (श्वेत कमलों) से, तिलकों से, रत्नों के अर्धचन्द्राकार चित्रों से व्याप्त हैं, भीतर और बाहर अत्यन्त चिकने हैं, तपाये हुए सुवर्ण के समान वालुकामयी प्रस्तटों या प्रस्तारों वाले हैं / सुखद स्पर्श वाले हैं, शोभायुक्त हैं, मन को प्रसन्न करने वाले और दर्शनीय हैं / _५९०-केवइया गं भंते ! वेमाणियावासा पण्णता ? गोयमा ! इमीमे णं रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागानो उड्ढं चंदिम-सूरिय-गहमण-नक्खत्त-तारारूवाणं बीइवइत्ता बहणि जोयणाणि बहूणि जोयणसयाणि बहुणि जोयणसहस्साणि [बहूणि जोयणसयसहस्साणि] बहूइओ जोयणकोडोप्रो बहुइओ जोयणकोडाकोडीआ असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीमो उड्ढं दूरं वीइवइत्ता एस्थ णं वेमाणियाणं देवाणं सोहम्मीसाण-सणंकुमार-माहिंद-बंभ-लंतग-सुक्क-सहस्सार-प्राणय-पाणयपारण-अच्चुएस गेवेज्जमणुत्तरेसु य चउरासीई विमाणावाससयसहस्सा सत्ताणउई च सहस्सा तेवीसं च विमाणा भवंतीतिमक्खाया। भगवन् ! वैमानिक देवों के कितने प्रावास कहे गये हैं ? गौतम ! इसी रत्नप्रभा पृथिवी के बहुसम रमणीय भूमिभाग से ऊपर, चन्द्र, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र और तारकाओं को उल्लंघन कर, अनेक योजन, अनेक शत योजन, अनेक सहस्र योजन [अनेक शत-सहस्र योजन अनेक कोटि योजन, अनेक कोटाकोटी योजन, और असंख्यात कोटा-कोटी योजन ऊपर बहुत दूर तक आकाश का उल्लंघन कर सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, लान्तक, शुक्र, सहस्रार, प्रानत, प्राणत, पारण, अच्युत कल्पों में, अवेयकों में और अनुत्तरों में वैमानिक देवों के चौरासी लाख सत्तानवै हजार और तेईस विमान हैं, ऐसा कहा गया है। 591 ते णं विमाणा अच्चिमालिप्पभा भासरासिवण्णाभा अरया निरया हिम्मला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org