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________________ 204] [ समवायाङ्गसूत्र प्रकार भवनों की सीढ़ियों पर भी गोशीर्षचन्दन और लालचन्दन के रस से पांचों अंगुलियों के हस्ततल अंकित हैं। वे भवन कालागुरु, प्रधान कुन्दरु और तुरुष्क (लोभान) युक्त धूप के जलते रहने से मघमघायमान, सुगन्धित और सुन्दरता से अभिराम (मनोहर) हैं। वहां सुगन्धित अगर ल रही हैं। वे भवन प्राकाश के समान स्वच्छ हैं, स्फटिक के समान कान्तियुक्त हैं, अत्यन्त चिकने हैं, घिसे हुए हैं, पालिश किये हुए हैं, नीरज (रज-धूलि से रहित) हैं निर्मल हैं, अन्धकार-रहित हैं, विशुद्ध (निष्कलंक) हैं, प्रभा-युक्त हैं. मरीचियों (किरणों) से युक्त हैं, उद्योत (शीतल प्रकाश) से युक्त हैं, मन को प्रसन्न करने वाले हैं। दर्शनीय (देखने के योग्य) हैं, अभिरूप (कान्त, सुन्दर) हैं और प्रतिरूप (रमणीय) हैं। जिस प्रकार से असुरकुमारों के भवनों का वर्णन किया गया है, उसी प्रकार नागकुमार आदि शेष भवनवासी देवों के भवनों का भी वर्णन जहां जैसा घटित और उपयुक्त हो, वैसा करना चाहिए / तथा ऊपर कही गई गाथाओं से जिसके जितने भवन बताये गये हैं, उनका वैसा ही वर्णन करना चाहिए। ५८७-केवइया णं भंते ! पुढविकाइयावासा पण्णता ? गोयमा! असंखेज्जा पुढविकाइयावासा पण्णत्ता / एवं जाव मणुस्स त्ति / भगवन् ! पृथिवीकायिक जीवों के प्रावास कितने कहे गये हैं ? गौतम ! पृथिवीका थिक जीवों के असंख्यात प्रावास कहे गये हैं। इसी प्रकार जलकायिक जीवों से लेकर यावत् मनुष्यों तक के जानना चाहिए। विवेचन–गर्भज मनुष्यों के आवास तो संख्यात ही होते हैं / तथा सम्मूच्छिम मनुष्यों के आवास नहीं होते हैं किन्तु प्रत्येक शरीर में एक एक जीव होने से वे असंख्यात हैं, इतना विशेष जानना चाहिए। ५८८--केवइया णं भंते वाणमंतरावासा पण्णत्ता ? गोयमा ! इमोसे गं रयणप्पभाए पुढवीए रयणामयस्स कंडस्स-जोयणसहस्स-बाहल्लस्स उरि एग जोयणसयं प्रोगाहेत्ता हेट्ठा चेगं जोयणसयं वज्जेत्ता मज्झे अट्ठस जोयणसएस एत्थ णं बाणमंतराणं देवाणं तिरियमसंखेज्जा भोमेज्जा नगरावाससयसहस्सा पण्णत्ता। ते णं भोमेज्जा नगरा बाहिं वट्टा अंतो चउरंसा। एवं जहा भवणवासोणं तहेव णेयव्वा / णवरं पडागमालाउला सुरम्मा पासाईया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा। भगवन् ! वानव्यन्तरों के आवास कितने कहे गये हैं ? गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथिवी के एक हजार योजन मोटे रत्नमय कांड के एक सौ योजन ऊपर से अवगाहन कर और एक सौ योजन नीचे के भाग को छोड़ कर मध्यके आठ सौ योजनों में यानव्यन्तर देवों के तिरछे फैले हुए असंख्यात लाख भौमेयक नगरावास कहे गये हैं। वे भौमेयक नगर बाहर गोल और भीतर चौकोर हैं। इस प्रकार जैसा भवनवासो देवों के भवनों का वर्णन किया गया है, वैसा ही वर्णन वानव्यन्तर देवों के भवनों का जानना चाहिए। केवल इतनी विशेषता है कि ये पताका-मालाओं से व्याप्त हैं / यावत् सुरम्य हैं, मनः को प्रसन्न करने वाले हैं, दर्शनीय हैं, अभिरूप हैं और प्रतिरूप हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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