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________________ 178] [समवायाङ्गसूत्र अर्थात् पूर्व-पूर्व क्षेत्रों से उत्तर के (आगे के) क्षेत्रों के अधिक विस्तार का, तथा इसी प्रकार के अन्य भी पदार्थों का इस समवायाङ्ग में विस्तार से वर्णन किया गया है। ५२४–समवायस्स गं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुओगवारा, संखेज्जानो पडिवत्तीनो, संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जानो निज्जुत्तीओ। समवायाङ्ग को वाचनाएं परीत हैं, अनुयोगद्वार संख्यात हैं, प्रतिपत्तियों संख्यात हैं, वेढ संख्यात हैं, श्लोक संख्यात हैं, और नियुक्तियां संख्यात हैं। ५२५-से णं अंगट्ठयाए चउत्थे अंगे, एगे अज्झयणे, एगे सुयक्खंधे, एगे उद्देसणकाले [एगे समुद्देसणकाले] / चउयाले पदसयसहस्से पदग्गेणं पण्णत्ते / संखेज्जाणि अक्खराणि, अणंता गमा, अगंता पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा सासया कडा निबद्धा निकाइया जिणपण्णत्ता भाषा आघविज्जति पण्णविज्जति परूविज्जंति निदंसिज्जति उवदंसिज्जति / से एवं प्राया, एवं विण्णाया, एवं चरण-करण परूवणया आघविज्जति से तं समवाए 4 / अंग की अपेक्षा यह चौथा अंग है, इसमें एक अध्ययन है, एक श्रुतस्कन्ध है, एक उद्देशन काल है, [एक समुद्देशन-काल है,] पद-गणना की अपेक्षा इसके एक लाख चवालीस हजार पद हैं। इसमें संख्यात अक्षर हैं, अनन्त गम (ज्ञान-प्रकार) हैं, अनन्त पर्याय हैं, परीत प्रस, अनन्त स्थावर तथा शाश्वत, कृत (अनित्य), निबद्ध, निकाचित जिन-प्रज्ञप्त भाव इस अंग में कहे जाते हैं, प्रज्ञापित किये जाते हैं, प्ररूपित किये जाते हैं, निशित किये जाते हैं और उपदर्शित किये जाते हैं / इस अंग के द्वारा आत्मा ज्ञाता होता है, विज्ञाता होता है / इस प्रकार चरण और करण की प्ररूपणा के द्वारा वस्तु के स्वरूप का कथन, प्रज्ञापन, प्ररूपण, निदर्शन और उपदर्शन किया जाता है। यह चौथा समवायाङ्ग है 4 / ५२६-से कि तं विवाहे ? विवाहेणं ससमया विआहिज्जति, परसमया विआहिज्जति, ससमयपरसमया विआहिज्जति, जीवा विनाहिज्जंति, अजीवा विआहिज्जति, जीवाजीवा विआहिज्जंति, लोगे विआहिज्जइ, अलोए विवाहिज्जइ, लोगालोगे विवाहिज्जइ / व्याख्याप्रज्ञप्ति क्या है इसमें क्या वर्णन है ? व्याख्याप्रज्ञप्ति के द्वारा स्वसमय का व्याख्यान किया जाता है, पर-समय का व्याख्यान किया जाता है, तथा स्वसमय-परसमय का व्याख्यान किया जाता है। जीव ख्याख्यात किये जाते हैं, अजीव व्याख्यात किये जाते हैं, तथा जीव और अजीव व्याख्यात किये जाते हैं। लोक व्याख्यात किया जाता है, अलोक व्याख्यात किया जाता है / तथा लोक और अलोक व्याख्यात किये जाते हैं / ५२७–विवाहे णं नाणाविहसुर-नरिंद-रायरिसि-विविहसंसइन-पुच्छिआणं जिणेणं वित्थरेण भासियाणं दव्व-गुण-खेत्त-काल-पज्जव-पदेस-परिणाम-जहत्थिभाव-अणुगम-निक्खेव-णयप्पमाणसुनिउणोरक्कम-विविहप्पकार-पगडपयासियाणं लोगालोगपयासियाणं संसारसमुद्द-रुंद-उत्तरण-समत्थाणं सुरवइ-संपूजियाणं भवियजण-पय-हिययाभिनंदियाणं तमरय-विद्धंसणाणं सुदिट्ठदीवभूय-ईहामति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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