________________ विश्लेषण किया गया है। भगवती सूत्र में प्रत्याख्यान के स्वरूप को बताने के लिये महाव्रतों का उल्लेख है। तत्वार्थसूत्र और उसके व्याख्यासाहित्य में भी महाव्रतों के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। जिसे जैन साहित्य में महाव्रत कहा है उसे ही बौद्ध साहित्य में० दश कुशलधर्म कहा है। उन्होंने दश कुशल धर्मों का समावेश इस प्रकार किया हैमहावत कुशलधर्म (1) अहिंसा (1) प्राणातिपात एवं (9) व्यापाद से विरति (2) सत्य (4) मृषावाद (5) पिशुनवचन (6) परुषवचन (7) संप्रलाप से विरति (3) प्रचौर्य (2) अदत्तादान से विरति (4) ब्रह्मचर्य (3) काम में मिथ्याचार से विरति (5) अपरिग्रह (8) अमिथ्या विरति / अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांच महाव्रत असंयम के स्रोत को रोककर संयम के द्वार को उद्घाटित करते हैं। हिंसादि पापों का जीवन भर के लिये तीन करण और तीन योग में त्याग किया जाता है। महाव्रतों में सावध योगों का पूर्ण रूप से त्याग होता है। महाव्रतों का पालन करना तीक्ष्ण तलवार की धार पर चलने के सदृश है। जो संयमी होता है वह इन्द्रियों के कामगुणों से बचता है। आश्रवद्वारों का निरोध कर संवर और निर्जरा से कर्मों को नष्ट करने का प्रयत्न करता है। इसके पश्चात् शास्त्रकार ने पांच समितियों का उल्लेख किया है / सम्यक प्रवृत्ति को समिति कहा गया हैं।८१ मुमुक्षुओं की शुभ योगों में प्रवृत्ति होती है। उसे भी समिति कहा है / ६२र्यासमिति आदि पांच को इसीलिए समिति संज्ञा दी है। उसके पश्चात् पंच अस्तिकाय का निरूपण किया गया है / पंचास्तिकाय जैन-दर्शन की अपनी देन है। किसी भी दर्शन ने गति और स्थिति के माध्यम के रूप में भिन्न द्रव्य नहीं माना है / वैशेषिक दर्शन ने उत्क्षेपण प्रादि को द्रव्य न मानकर कर्म माना है / जैनदर्शन ने गति के लिए धर्मास्तिकाय और स्थिति के लिए अधर्मास्तिकाय स्वतन्त्र द्रव्य माने हैं। जनदर्शन की आकाश विषयक मान्यता भी अन्य दर्शनों से विशेषता लिये हुए है / अन्य दर्शनों ने लोकाकाश को अवश्य माना है पर अलोकाकाश को नहीं माना। अलोकाकाश की मान्यता जैनदर्शन की अपनी विशेषता है। पुद्गल द्रव्य की मान्यता भी विलक्षणता लिये हए है। वैशेषिक आदि दर्शन पृथ्वी आदि द्रव्यों के पृथक-पृथक जातीय परमाणु मानते हैं / किन्तु जैनदर्शन पृथ्वी आदि का एक पुद्गल द्रव्य में ही समावेश करता है। प्रत्येक पुद्गल परमाणु में स्पर्श, रस, गन्ध और रूप रहते हैं। इसी प्रकार इनकी पृथक-पृथक जातियां नहीं, अपितु एक ही जाति है / पृथ्वी का परमाणु पानी के रूप में बदल सकता है और पानी . णु अग्नि में परिणत हो सकता है / साथ ही जैनदर्शन ने शब्द को भी पौद्गलिक माना है। जीव के सम्बन्ध में भी जैनदर्शन की अपनी विशेष मान्यता है / वह संसारी आत्मा को स्वदेह-परिमाण मानता है। जैनदर्शन के अतिरिक्त अन्य किसी भी दर्शन ने आत्मा को स्वदेह-परिमाण नहीं माना है। इस तरह पांचवें समवाय में जैनदर्शन सम्बन्धी विविध पहलुओं पर चिन्तन किया गया है। 78. भगवतीसूत्र, शतक 7, उद्दे. 2, पृ. 175 79. तत्वार्थसूत्र-अ. 7 80. मज्झिमनिकाय--सम्मादिट्टो सुत्तन्त 29 81. उत्तराध्ययन २४/गाथा-२६ / 82. स्थानांग स्था. 8, सूत्र 603 की टीका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org