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________________ छठा समवाय : एक विश्लेषण छठे समबाय में छह लेश्या, षट् जीवनिकाय, छह बाह्य तप, छह प्राभ्यन्तर तप, छह छायास्थिक समुदघात, छह अर्थावग्रह, कृत्तिका और पाश्लेषा, नक्षत्रों के छह-छह तारे, नारक व देवों की छह पल्योपम तथा छह सागरोपम की स्थिति का वर्णन किया गया है और कितने ही जीव छह भव ग्रहण करके मुक्त होंगे, यह बतलाया गया है। इस समवाय में सर्वप्रथम लेश्या का उल्लेख है / स्थानांग,८३ उत्तराध्ययन४ और प्रज्ञापना८५ में लेश्या के सम्बन्ध में विस्तार से निरूपण है। प्रागमयुग के पश्चात दार्शनिक युग के साहित्य में भी लेश्या के सम्बन्ध में व्यापक रूप से चिन्तन किया गया है। आधुनिक युग के वैज्ञानिक भी आभामण्डल के रूप में इस पर चिन्तन कर रहे हैं / सामान्य रूप से मन आदि योगों से अनुरञ्जित तथा विशेष रूप से कषायानुरञ्जित प्रात्म-परिणामों से जीव एक विशिष्ट पर्यावरण समुत्पन्न करता है। वह पर्यावरण ही लेश्या है। उत्तराध्ययन में लेश्या के पूर्व कर्म शब्द का प्रयोग हुआ है अर्थात् कर्म लेश्या / कर्म-बन्ध के हेतु रागादिभाव कर्म लेश्या है। यों लेश्याएं भाव और द्रव्य के रूप से दो प्रकार की हैं। कितने ही प्राचार्य कषायानुरञ्जित योग प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं। इस दृष्टि से लेश्या छद्मस्थ व्यक्ति को ही हो सकती है पर शुक्ल लेश्या तेरहवें गुणस्थानवर्ती सयोगी केवली में भी होती है। अतः कोई-कोई योग की प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं। कषाय से उसमें तीव्रता प्रादि का सन्निवेश होता है। प्राचार्य जिनदास गणि महत्तर ने स्पष्ट कहा है कि लेश्याओं के द्वारा प्रात्मा पर कर्मों का संश्लेष होता है / द्रव्य लेश्या के सम्बन्ध में चिन्तकों के विभिन्न मत रहे हैं। कितने ही विज्ञों के मत से लेश्या द्रव्य कर्मपरमाणु से बना हुआ है। पर बह पाठ कर्म अणुओं से भिन्न है। दूसरे विज्ञों के मत से लेश्या द्रव्य बध्यमान कर्म प्रवाह रूप है। तीसरे अभिमत के अनुसार वह स्वतन्त्र द्रव्य है / प्रस्तुत समवाय में छह बाह्य तप और छह प्राभ्यन्तर तपों का भी उल्लेख है। प्रथम बाह्य तप में अनशन / तपों से अधिक कठोर है। अनशन से शारीरिक, मानसिक विशुद्धि होती है। यह अग्निस्नान की तरह कर्म-मल को दूर कर प्रात्मा रूपी स्वर्ण को चमकाता है। दूसरा बाह्यतप ऊनोदरी है / उसे अवमौदर्य भी कहा है / द्रव्य ऊनोदरी में आहार की मात्रा कम की जाती है और भाव ऊनोदरी में कषाय की मात्रा कम की जाती है। द्रव्य ऊनोदरी से शरीर स्वस्थ रहता है और भाव ऊनोदरी से आन्तरिक गुणों का विकास होता है। विविध प्रकार के अभिग्रह करके आहार की गवेषणा करना भिक्षाचरी है। भिक्षाचरी के अनेक भेद-प्रभेदों का उल्लेख है।८७ भिक्षु को अनेक दोषों को टाल कर भिक्षा ग्रहण करनी होती है / 58 जिससे भोजन में प्रीति उत्पन्न होती हो, वह रस है। मधुर आदि रसों से भोजन में सरसता पाती है। रस उत्तेजना उत्पन्न करने वाले होते हैं / साधक आवश्यकतानुसार आहार ग्रहण करता है किन्तु स्वाद के लिए नहीं ! स्वाद के लिए आहार को चुसना, चबाना दोष है। उन रस के दोषों से बचना रसपरित्याग है। शरीर को कष्ट देना कायक्लेश है। साधक 83. स्थानांगसूत्र--सू. 132, 151, 221, 319, 504 84. उत्तराध्ययनसूत्र-अ. 34 85. प्रज्ञापनासूत्र-पद 17 16. लेश्याभिरात्मनि कर्माणि संश्लिष्यन्त-पावश्यकचूर्णि क-- उत्तराध्ययन 30/25 ख--स्थानांग-६ 88. कपिण्ड नियुक्ति-९२ से 96 ख-उत्तराध्ययन 24/12 [33] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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