________________ 164] [समवायाङ्गसूत्र पार्श्व अर्हत् के छह सौ अपराजित वादियों की उत्कृष्ट वादिसम्पदा थी जो देव, मनुष्य और असुरों में से किसी से भी वाद में पराजित होने वाले नहीं थे। अभिचन्द्र कुलकर छह सौ धनुष ऊंचे थे / वासुपूज्य अर्हत् छह सौ पुरुषों के साथ मुडित होकर अगार से अनगारिता में प्रवजित हुए थे। 600 / ४७२-बंभ-लंतएसु [दोसु] कप्पेसु विमाणा सत्त सत्त जोयणसयाई उड्ढे उच्चतेणं पण्णत्ता। ब्रह्म और लान्तक इन दो कल्पों में विमान सात-सात सौ योजन ऊंचे कहे गये हैं। ४७३–समणस्स णं भगवओ महावीरस्स सत्त जिणसया होत्था। समणस्स णं भगवओ महावीरस्स सत्त वेउब्वियसया होत्था। अरिटुणेमो णं अरहा सत्त वाससयाई देसूणाई केवलपरियागं पाउणित्ता सिद्धे बुद्धे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे / श्रमण भगवान् महावीर के संघ में सात सौ केवली थे। श्रमण भगवान् महावीर के संघ में पलब्धिधारी साधु थे। अरिष्टनेमि अर्हत कुछ (54 दिन) कम सात सौ वर्ष केवलिपर्याय में रह कर सिद्ध, बुद्ध, कर्म-मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्व दुःखों से रहित हुए। ४७४-महाहिमवंतफूडस्स णं उवरिल्लाओ चरमंताओ महाहिमवंतस्स वासहरपब्वयस्स समधरणितले एस णं सत्त जोयणसयाई अवाहाए अंतरे पण्णत्ते / एवं रुप्पिकूडस्स वि 700 / महाहिमवन्त कुट के ऊपरी चरमान्त भाग से महाहिमवन्त वर्षधर पर्वत का समधरणी तल सात सौ योजन अन्तर वाला कहा गया है / इसी प्रकार रुक्मी कूट का भी अन्तर जानना चाहिए / विवेचन- समभूमि तल से महाहिमवन्त और रुक्मी वर्षधर पर्वत दो-दो सौ योजन ऊंचे है और उनके महाहिमवन्तकूट और रुक्मीकूट पांच-पाँच सौ योजन ऊंचे हैं। अत: उक्त कूटों के ऊपरी भाग से उक्त दोनों ही वर्षधर पर्वतों के समभूमि का अन्तर सात-सात सौ योजन का सिद्ध हो जाता है / ४७५–महासुक्क-सहस्सारेसु दोसु कप्पेसु विमाणा अट्ठजोयणसयाई उड्ढं उच्चतेणं पण्णता। महाशुक्र और सहस्रार इन दो कल्पों में विमान पाठ सौ योजन ऊंचे कहे गये हैं। ४७६-इमोसे णं रयणप्पमाए [पुढवीए] पढमे कंडे अट्ठसु जोयणसएसु वाणमंतरभोमेज्जविहारा पण्णत्ता। इस रत्नप्रभा पृथिवी के प्रथम कांड के मध्यवर्ती आठ सौ योजनों में वानव्यन्तर भौमेयक देवों के विहार कहे गये हैं। विवेचन–वनों में वृक्षादि पर उत्पन्न होने से व्यन्तरों को 'वान' कहा जाता है / तथा उनके विहार, नगर या आवासस्थान भूमि निर्मित हैं इसलिए उनको 'भौमेयक' कहा जाता है / दशवें अंजनकांड का उपरिम भाग समभूमि भाग से नौ सौ योजन नीचे है / उसमें से प्रथम रत्न कांड के सौ योजन कम कर देने पर वानव्यन्तरों के प्रावास अंजनकांड के उपरिम भाग तक मध्यवर्ती पाठ सौ योजनों में पाये जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org