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________________ 154] [समवायाङ्गसूत्र पञ्चनवतिस्थानक-समवाय ४२९-सुपासस्स णं अरहओ पंचाण उइगणा पंचाणउइं गणहरा होत्था / सुपार्श्व अर्हत् के पंचानवै गण और पंचानवै गणधर थे। ४३०--जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स चरमंतानो चउद्दिस लवणसमुदं पंचाणउई पंचाणउई जोयणसहस्साई ओगाहित्ता चत्तारि महापायालकलसा पण्णत्ता / तं जहा-वलयामुहे केऊए जूयए ईसरे / लवणसमुदस्स उभो पास पि पंचाणउयं पंचाणउयं पदेसानो उन्वेहुस्सेहपरिहाणीए पण्णत्ता / इस जम्बूद्वीप के चरमान्त भाग से चारों दिशाओं में लवण समुद्र के भीतरी पंचानव-पंचानवे हजार योजन अवगाहन करने पर चार महापाताल हैं। जैसे-१. वड़वामुख, 2. केतुक, 3. यूपक और 4. ईश्वर / __ लवण समुद्र के उभय पार्श्व पंचानवै-पचानवै प्रदेश पर उद्वेध (गहराई) और उत्सेध (उंचाई) वाले कहे गये हैं। विवेचन-लवण समुद्र के मध्य में दश हजार योजन-प्रमाण क्षेत्र समधरणीतल की अपेक्षा एक हजार योजन गहरा है। तदनन्तर जम्बूद्वीप की वेदिका की ओर पंचानवै प्रदेश आगे आने पर गहराई एक प्रदेश कम हो जाती है। उससे भी आगे पंचानवै प्रदेश आने पर गहराई और भी एक प्रदेश कम हो जाती है / इस गणितक्रम के अनुसार पंचानवै हाथ जाने पर एक हाथ, पंचानवै योजन जाने पर एक योजन और पंचानवै हजार योजन जाने पर एक हजार योजन गहराई कम हो जाती है। अर्थात् जम्बूद्वीप की वेदिका के समीप लवणसमुद्र का तलभाग भूमि के समानतल वाला हो जाता है। इस प्रकार लवण समुद्र के मध्य भाग के एक हजार योजन की गहराई की अपेक्षा लवण समुद्र का तट भाग एक हजार योजन ऊंचा है। जब इसी बात को समुद्रतट की ओर से देखते हैं, तब यह अर्थ निकलता है कि तट भाग से लवण समुद्र के भीतर पंचानवै प्रदेश जाने पर तट के जल की ऊंचाई एक प्रदेश कम हो जाती है, आगे पंचानवै प्रदेश जाने पर तट के जल की ऊंचाई एक प्रदेश और कम हो जाती है। इसी गणित के अनुसार पंचानवै हाथ जाने पर एक हाथ, पंचानवै योजन जाने पर एक योजन और पंचानवे हजार योजन आगे जाने पर एक हजार योजन समुद्र तटवर्ती जल की ऊंचाई कम हो जाती है। दोनों प्रकार के कथन का अर्थ एक ही है समुद्र के मध्य भाग की अपेक्षा जिसे उद्वेध या गहराई कहा गया है उसे ही समुद्र के तट भाग की अपेक्षा उत्सेध या ऊंचाई कहा गया है। इस प्रकार यह निष्कर्ष निकला कि लवण समुद्र के तट से पंचानवै हजार योजन आगे जाने पर दश हजार योजन के विस्तार वाला मध्यवर्ती भाग सर्वत्र एक हजार योजन गहरा है / और उसके पहिले सर्व पोर का जलभाग समुद्रतट तक उत्तरोत्तर हीन है। 431 - कुथू गं अरहा पंचाणउइं वाससहस्साई परमाउयं पालइत्ता सिद्ध बुद्धे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे। थेरे णं मोरियपुत्ते पंचाणउइवासाई सवाउयं पालइत्ता सिद्ध बुद्धे जाव सम्बदुक्खप्पहीणे / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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