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________________ 84] [समवायाङ्गसूत्र 28. योगानुयोगश्रत---स्त्री-पुरुषादि को वश में करनेवाले अंजन, गुटिका आदि के निरूपक शास्त्र। 29. अन्यतीथिकप्रवृत्तानुयोग-कपिल, बौद्ध आदि मतावलम्बियों के द्वारा रचित शास्त्र / / उक्त प्रकार के शास्त्रों के पढ़ने और सुनने से मनुष्यों का मन-इन्द्रिय-विषयों की ओर आकृष्ट होता है और भौम, स्वप्न आदि का फलादि बतानेवाले शास्त्रों के पठन-श्रवण से मुमुक्षु साधक अपनी साधना से भटक सकता है, अतः मोक्षाभिलाषी जनों के लिए उक्त सभी प्रकार के शास्त्रों को पापश्रुत कहा गया है। १९२-आसाढे णं मासे एगणतोसराइंदिग्राइं राइंदियग्गेणं पण्णत्ता। [एवं चेव] भद्दवए णं मासे, कत्तिए णं मासे, पोसे णं मासे, फग्गुणे णं मासे, वइसाहे णं मासे / चंददिणे णं एगूणतीसं मुहत्ते सातिरेगे मुहत्तग्गेणं पण्णत्ते। प्राषाढ़ मास रात्रि-दिन की गणना की अपेक्षा उनतीस रात-दिन का कहा गया है। इसी प्रकार] भाद्रपद मास, कात्तिक मास, पौषमास, फाल्गुणमास, और वैशाखमास भी उनतीस-उनतीस रात-दिन के कहे गये हैं / चन्द्र दिन मुहूर्त्तगणना की अपेक्षा कुछ अधिक उनतीस मुहूर्त का कहा गया है। १९३-जीवे णं पसत्थज्यवसाणजुत्ते भविए सम्मदिट्ठी तित्थकरनामसहिनाओ णामस्स णियमा एगूणतीसं उत्तरपगडीअो णिबंधित्ता वेमाणिएसु देवेसु देवत्ताए उववज्जइ / प्रशस्त अध्यवसान (परिणाम) से युक्त सम्यग्दष्टि भव्य जीव तीर्थकरनाम-सहित नामकर्म की उनतीस प्रकृतियों को बांधकर नियम से वैमानिक देवों में देवरूप से उत्पन्न होता है। १९४--इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं एगणतीसं पलियोधमाई ठिई पण्णत्ता / अहे सत्तमाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं एगूणतीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता / असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं एगूणतीसं पलिग्रोवमाई ठिई पण्णत्ता। सोहम्मोसाणेसु कप्पेसु देवाणं अत्थेगइयाणं एगूणतीसं पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति उनतीस पत्योपम की है। अधस्तन सातवीं पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति उनतीस सागरोपम की है। कितनेक असुर कुमार देवों की स्थिति उनतीस पल्योपम की है। सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति उनतीस पल्योपम की होती है। १९५-उबरिममज्झिमगेवेज्जयाणं देवाणं जहण्णेणं एगणतीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता / जे देवा उवरिमहेट्ठिमगेवेज्जयविमाणेसु देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं एगूणतीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। ते णं देवा एगणतीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा, पाणमंति वा, ऊससंति वा, नीससंति वा / तेसि णं देवाणं एगूणतीसं वाससहस्सेहि आहारठे समुप्पज्जइ / संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे एगूणतीसभवग्गणेहि सिज्झेिस्सति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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