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________________ त्रिशत्स्थानक समवाय] [85 उपरिम-मध्यम ग्रेवेयक देवों की जघन्य स्थिति उनतीस सागरोपम कही गई है। जो देव उपरिम-अधस्तन ग्रैवेयक विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति उनतीस सागरोपम कही गई है। वे देव उनतीस अर्धमासों (साढ़े चौदह मासों) के बाद प्रान-प्राण या उच्छ्वासनि:श्वास लेते हैं / उन देवों के उनतीस हजार वर्षों के बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्य सिद्धिक जीव ऐसे हैं जो उनतीस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे , परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे / // एकोनत्रिंशत्स्थानक समवाय समाप्त // त्रिंशत्स्थानक-समवाय १९६-तीसं मोहणीयठाणा पण्णता / तं जहा जे यावि तसे पाणे वारिमझे विगाहिया / उदएण क्कम्म मारेइ महामोहं पकुव्वइ // 1 // सीसावेढेण जे केई आवेढेइ अभिक्खणं / तिब्वासुभसमायारे महामोहं पकुब्वइ // 2 // पाणिणा संपिहिताणं सोयमावरिय पाणिणं / अंतोनदंतं मारेई महामोहं पकुव्वइ // 3 // जायतेयं समारब्भ बहुं प्रारंभिया जणं / अंतोधूमेण मारेई महामोहं पकुव्वइ // 4 // सिस्सम्मि [सीसम्मि] जे पहणइ उत्तमंगम्मि चेयसा / विभज्ज मत्थयं फाले महामोहं पकुव्वद // 5 // पुणो पुणो पणिधिए हणित्ता उवहसे जणं / फलेणं अदुवा दंडेणं महामोहं पकुव्वइ // 6 // गढायारी निगहिज्जा मायं मायाए छायए। असच्चवाई णिहाई महामोहं पकुव्वइ / / 7 / / घंसेइ जो अभूएणं अकम्मं अत्तकम्मुणा / अदुवा तुम कासि त्ति महामोहं पकुवइ / / 8 / / जाणमाणो परिसपो सच्चामोसाणि भासइ / अक्खीणझंझे पुरिसे महामोहं पकुव्वइ // 9 // अणागयस्स नयवं दारे तस्सेव धंसिया। विउलं विक्खोभइत्ताणं किच्चा णं पडिबाहिरं // 10 // उवगसतं पि झंपित्ता पडिलोमाई वहि / भोगभोगे वियारेई मोहमाहं पकुव्वइ // 11 // अकुमारभूए जे केई कुमारभूए ति हं वए। इत्थीहिं गिद्धे वसए महामोहं पकुव्वइ // 12 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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