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________________ एकादशस्थानक समवाय] [31 - 72-- लोगताओ इक्कारसएहि एक्कारेहि अबाहाए जोइसते पणते / जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पन्वयस्स एक्कारसहि एक्कवीसेहिं जोयणसएहि जोइसे चारं चरइ / लोकान्त से ग्यारह सौ ग्यारह योजन के अन्तराल पर ज्योतिश्चक्र अवस्थित कहा गया है। जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत से ग्यारह सौ इक्कीस (1121) योजन के अन्तराल पर ज्योतिश्चक्र संचार करता है। ७३-सणमस्स णं भगवओ महावीरस्स एक्कारस्स गणहरा होत्था / तं जहा-इंदभूई अग्गिभूई वायुभूई विप्रत्ते सोहम्मे मंडिए मोरियपुत्ते अकंपिए अयलभाए मेअज्जे पभासे / श्रमण भगवान् महावीर के ग्यारह गणधर थे---इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, व्यक्त, सुधर्म, मंडित, मौर्यपुत्र, अकम्पित, अचलभ्राता, मेतार्य और प्रभास / ७४-मूले नवखत्ते एक्कारस तारे पण्णत्ते / हेडिमगेविज्जयाणं देवाणं एवकारसमुत्तरं गेविज्जविमाणसतं भवइत्ति मक्खायं / मंदरे णं पव्वए धरणितलानो सिहरतले एक्कारस भागपरिहाणे उच्चत्तेणं पण्णत्ते। मूल नक्षत्र ग्यारह तारावाला कहा गया है। अधस्तन ग्रेवेयक-देवों के विमान एक सौ ग्यारह (111) कहे गये हैं। मन्दर पर्वत धरणी-तल से शिखर तल पर ऊंचाई की अपेक्षा ग्यारहवें भाग से हीन विस्तार वाला कहा गया है। विवेचन-मन्दर मेरु एक लाख योजन ऊंचा है, उसमें से एक हजार योजन भूमि के भीतर मूल रूप में और भूमितल से ऊपर निन्यानवे (99) हजार योजन ऊंचा है तथा वह धरणीतल पर दश हजार योजन विस्तृत है और शिखर पर एक हजार योजन विस्तृत है। यतः 1149-91 निन्यानवे होते हैं, अतः भूमितल के दश हजार योजन विस्तार वाले भाग से ऊपर ग्यारह योजन जाने पर उसका विस्तार एक योजन कम हो जाता है, इस नियम के अनुसार निन्यानवे योजन ऊपर जाने पर सुमेरु पर्वत का शिखरतल एक हजार योजन विस्तृत सिद्ध हो जाता है। इसी नियम को ध्यान में रखकर मन्दर पर्वत के धरणीतल के विस्तार से शिखरतल का विस्तार ग्यारहवें भाग से हीन कहा गया है। ७५-इमोसे णं रयणपभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं एक्कारस पलिओवमाई ठिई पण्णता। पंचमीए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं एक्कारस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं एक्कारस पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। सोहम्मोसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं एक्कारस पलिग्रोवमाई ठिई पण्णत्ता। इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति ग्यारह पल्योपम कही गई है। पांचवीं धूमप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति ग्यारह सागरोपम कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों को स्थिति ग्यारह पल्योपम कही गई है। सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति ग्यारह पल्योपम कह गई है। ७६---लंतए कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं एकारस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। जे देवा बंभं सुबंभं बंभावत्तं बंभप्पमं बंभकंतं बंभवण्णं बंभलेसंबंभज्झयं बसिगं बंभसिट तरडिसगं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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