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________________ 116] [समवायाङ्गसूत्र २८३-दसणावरण-नामाणं दोण्हं कम्माणं एकावन्न उत्तरकम्मपगडीओ पण्णत्तानो। दर्शनावरण और नाम कर्म इन दोनों कर्मों की (9-42=51) इक्यावन उत्तर कर्मप्रकृतियां कही गई हैं। // एकपञ्चाशत्स्थानक समवाय समाप्त // द्विपञ्चाशत्स्थानक-समवाय २८४-मोहणिज्जस्स गं कम्मस्स वावन्न नामधेज्जा पण्णत्ता / तं जहा--कोहे कोवे रोसे दोसे अखमा संजलणे कलहे चंडिक्के भंडणे विवाए 10, माणे मदे दप्पे थंभे अत्तक्कोसे गवे परपरिवाए अवक्कोसे [परिभवे] उन्नए 20, उन्नामे माया उवही नियडी वलए गहणे णमे कक्के करुए दंभे 30. कूडे जिम्हे किदिवसे अणायरणया गृहणया वंचणया पलिकुचणया सातिजोगे लोभे इच्छा 40; मुच्छा कंखा गेहो तिण्हा भिज्जा अभिज्जा कामासा भोगासा जीवियासा मरणासा 50, नन्दी रागे 52 / __ मोहनीय कर्म के वावन नाम कहे गये हैं। जैसे-१. क्रोध, 2. कोप, 3. रोष, 4. द्वेष, 5. अक्षमा, 6. संज्वलन, 7. कलह, 8. चंडिक्य, 9. भंडन, 10. विवाद, ये दश क्रोधकषाय के नाम हैं। 11. मान, 12. मद, 13. दर्प, 14. स्तम्भ, 15. आत्मोकर्ष, 16. गर्व, 17. परपरिवाद, 18. अपकर्ष, [19. परिभव] 20. उन्नत, 21. उन्नाम ; ये ग्यारह नाम मान कषाय के हैं / 22. माया, 23. उपधि, 24. निकृति, 25. वलय, 26. गहन, 27. न्यवम, 28. कल्क, 29. कुरुक, 30. दंभ, 31. कूट, 32. जिम्ह 33. किल्विष, 34. अनाचरणता, 35. गृहनता, 36. वंचनता, 37. पलिकुचनता, 38. सातियोग; ये सत्तरह नाम मायाकषाय के हैं। 39. लोभ, 40. इच्छा, 41. मूर्छा, 42. कांक्षा, 43. गृद्धि, 44. तृष्णा, 45. भिध्या, 46. अभिध्या, 47. कामाशा, 48. भोगाशा, 49. जीविताशा, 50. मरणाशा, 51. नन्दी, 52. राग; ये चौदह नाम लोभ-कषाय के हैं। इसी प्रकार चारों कषायों के नाम मिल कर [1011+17-14 = 52] बावन मोहनीय कर्म के नाम हो जाते हैं। 285-- गोथुभस्स णं आवासपव्वयस्स पुरच्छिमिल्लायो चरमंताओ वलयामुहस्स महापायालस्स पच्चच्छिल्ले चरमंते, एस णं वावन्न जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / एवं दगभागस्स णं केउगस्स संखस्स जूयगस्स दगसीमस्स ईसरस्स / गोस्तुभ आवास पर्वत के पूर्वी चरमान्त भाग से वडवामुख महापाताल का पश्चिमी चरमान्त बाधा के विना बावन हजार योजन अन्तर वाला कहा गया है। इसी प्रकार लवण समुद्र के भीतर अवस्थित दकभास केतुक का, शंख नामक जूपक का और दकसीम नामक ईश्वर का, इन चारों महापाताल कलशों का भी अन्तर जानना चाहिए। विवेचन-लवण समुद्र दो लाख योजन विस्तृत है / उसमें पंचानवे हजार योजन आगे जाकर पूर्वादि चारों दिशाओं में चार महापाताल कलश हैं, उनके नाम क्रम से बड़वामुख, केतुक, जूपक और ईश्वर हैं / जम्बूद्वीप की बेदिका के अन्त से बयालीस हजार योजन भीतर जाकर एक हजार योजन के विस्तार वाले गोस्तुभ आदि वेलन्धर नागराजों के चार आवास पर्वत हैं। इसलिए पंचानवे हजार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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