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________________ एकस्यानक समवाय] पापी पुरुषों का, तथा महान् पुण्योपार्जन करनेवाले और उसके फलस्वरूप सांसारिक सुखों को पाने वाले पुण्यात्मा जनों का चरित्र-वर्णन है। 12. दृष्टि वादाङ्ग-में परिकर्म, सूत्र, पूर्व, अनुयोग और चूलिका नामक पांच महा अधिकारों के द्वारा गणितशास्त्र का, 363 अन्य मतों का, चौदह पूर्वो का, महापुरुषों के चरितों का एवं जलगता, अाकाशगता आदि पांच चलिकामों का बहुत विस्तृत विवेचन किया गया है। वस्तुतः द्वादशाङ्ग श्रुत में यह दृष्टि वाद अंग ही सबसे बड़ा है। ___ इस द्वादशांग श्रुत को 'गणिपिटक' कहने का अभिप्राय यह है कि जैसे 'पिटक' पिटारी, पेटी, मंजूषा या आज के शब्दों में सन्दूक या बॉक्स में कोई भी व्यापारी अपनी मूल्यवान् वस्तुओं को सुरक्षित रखता है, उसी प्रकार गणी अर्थात् साधु-साध्वी-संघ के स्वामी आचार्य का यह भगवान् के द्वादशांग श्रुतरूप अमूल्य प्रवचनों को सुरक्षित रखने वाला पिटक या पिटारा है। 2. तत्थ णं जे से चउत्थे अंगे समवाए त्ति आहिते तस्स णं अयमढे पन्नते / तं जहा उस द्वादशांग श्रुतरूप गणिपिटक में यह समवायांग चौथा अंग कहा गया है, उसका यह अर्थ इस प्रकार है विवेचन---प्रतिनियत संख्या वाले पदार्थों के सम्-सम्यक् प्रकार से अवाय-निश्चय या परिज्ञान कराने से इस अंग का 'समवाय' यह सार्थक नाम है। एकस्थानक-समवाय ३–एगे प्राया, एगे अणाया। एगे दंडे, एगे अदंडे / एगा किरिया, एगा अकिरिया। एगे लोए, एगे अलोए। एगे धम्मे, एगे अधम्मे। एगे पुण्णे, एगे पावे / एगे बंधे, एगे मोक्खे / एगे आसवे, एगे संवरे / एगा वेयणा, एगा णिज्जरा। अात्मा एक है, अनात्मा एक है, दंड एक है, अदंड एक है, क्रिया एक है, प्रक्रिया एक है, लोक एक है, अलोक एक है, धर्मास्तिकाय एक है, अधर्मास्तिकाय एक है, पुण्य एक है, पाप एक है, बन्ध एक है, मोक्ष एक है, प्रास्त्रब एक है, संवर एक है, वेदना एक है और निर्जरा एक है। विवेचन यद्यपि प्रात्मा-अनात्मा आदि (अचेतन पुद्गलादि) पदार्थ अनेक हैं, किन्तु द्रव्यार्थिक-संग्रह नय की अपेक्षा उनकी एकता उक्त मूत्रों में प्रतिपादित की गई है। इसका कारण यह है कि सभी जीव प्रदेशों की अपेक्षा असंख्यात प्रदेशी होते हुए भी जीव द्रव्य की अपेक्षा एक हैं / अथवा त्रिकाल अनुगामी चेतनत्व की अपेक्षा एक हैं। इसी प्रकार अनात्मा-आत्मा से भिन्न घट-पटादि अचेतन पदार्थ अचेतनत्व सामान्य की अपेक्षा एक हैं / दण्ड अर्थात् हिंसादि सभी प्रकार के पाप, मन, वचन, काय की खोटी प्रवृत्ति रूप हैं अतः दण्ड भी एक है / अहिंसक या प्रशस्त मन, वचन, काय की प्रवृत्तिरूप होने से अदण्ड भी एक है। इसी प्रकार क्रिया-प्रक्रिया, लोक-अलोक, धर्मास्तिकायअधर्मास्तिकाय, पुण्य-पाप, बन्ध-मोक्ष, आस्रव-संवर, वेदना और निर्जरा इन सभी परस्पर प्रतिपक्षी या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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