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________________ 192] [समवायाङ्गसूत्र ५६०-से कि तं मणुस्ससेणियापरिकम्मे ? मणस्ससेणियापरिकम्मे चोदसविहे पण्णत्ते / तं जहा- ताई चेव माउप्रापयाणि जाव नंदावत्तं मणुस्सबद्धं / से तं मणुस्ससेणियापरिकम्मे / मनुष्यश्रेणिका-परिकर्म क्या है ? मनुष्यश्रेणिका-परिकर्म चौदह प्रकार का कहा गया है। जैसे--मातृकापद से लेकर वे ही पूर्वोक्त नन्द्यावर्त तक और मनुष्यबद्ध। यह सब मनुष्यश्रेणिका परिकर्म है। ५६१-अवसेसा परिकम्माई पुट्ठाइयाइं एक्कारसबिहाइं पन्नत्ताई। इच्चेयाई सत्त परिकम्माइं ससमइयाई, सत्त आजीवियाई, छ चउक्कणइयाइं, सत्त तेरासियाई। एवामेव सपुवावरेणं सत्त परिकम्माई तेसोति भवंतीतिमक्खायाई / से तं परिकम्माई। पृष्ठश्रेणिका परिकर्म से लेकर शेष परिकर्म ग्यारह-ग्यारह प्रकार के कहे गये हैं। पूर्वोक्त सातों परिकर्म स्वसामयिक (जैनमतानुसारी) हैं, सात आजीविकमतानुसारी हैं, छह परिकर्म चतुष्कनय वालों के मतानुसारी हैं और सात राशिक मतानुसारी हैं। इस प्रकार ये सातों परिकर्म पूर्वापर भेदों की अपेक्षा तिरासी होते हैं, यह सब परिकर्म हैं। विवेचन-संस्कृत टीकाकार लिखते हैं कि परिकर्म सूत्र और अर्थ से विच्छिन्न हो गये हैं। इन सातों परिकर्मों में से आदि के छह परिकर्म स्वसामयिक हैं। तथा गोशालक-द्वारा प्रवत्तित आजीविकापाखण्डिक मत के साथ परिकर्म में सात भेद कहे जाते हैं। दिगम्बर-परम्परा के शास्त्रों के अनुसार परिकर्म में गणित के करणसूत्रों का वर्णन किया गया है। इसके वहां पाँच भेद बतलाये गये हैं-चन्द्र-प्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति और व्याख्याप्रज्ञप्ति / चन्द्र-प्रज्ञप्ति में चन्द्रमा-सम्बन्धी मिवान, आयु, परिवार, ऋद्धि, गमन, हानि-वृद्धि, पूर्ण ग्रहण, अर्धग्रहण, चतुर्थांश ग्रहण आदि का वर्णन किया गया है। सूर्यप्रज्ञप्ति में सूर्य-सम्बन्धी आयु, परिवार, ऋद्धि-गमन, ग्रहण आदि का वर्णन किया गया है / जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति में जम्बूद्वीप-सम्बन्धी मेरु, कुलाचल, महाह्रद, क्षेत्र, कुड, वेदिका , वन आदि का वर्णन किया गया है। द्वीपसागरप्रज्ञप्ति में असंख्यात द्वीप और समुद्रों का स्वरूप, नन्दीश्वर द्वीपादि का विशिष्ट वर्णन किया गया है / व्याख्या-प्रज्ञप्ति में भव्य, अभव्य जीवों के भेद, प्रमाण, लक्षण, रूपो, अरूपी, जीव-अजीव द्रव्यादिकों की विस्तृत व्याख्या की गई है। 562 –से कि तं सुत्ताइं? सुत्ताई अट्ठासीति भवंतीति मक्खायाई। तं जहा- उजुगं परिणयापरिणयं बहुभंगियं विप्पच्चइयं [विन (ज) यचरियं] अणंतरं परंपरं समाणं संजुहं [मासाणं] संभिन्नं पाहच्चायं [अहव्वायं] सोवस्थि (वत्त)यं णंदावत्तं बहुलं पुढापुढें वियावत्तं एवंभूयं दुआवत्तं वत्तमाणप्पयं समभिरूढं सव्वओ भदं पणासं [पण्णासं] दुपडिग्गहं इच्चेयाई बावीसं सुत्ताई छिण्णछेअणइआई ससमयसुत्तपरिवाडीए, इच्चेप्राइं बावीसं सुत्ताई अछिन्नछेयनइयाई आजीवियसुत्तपरिवाडीए, इच्चेआई वावीसं सुत्ताई तिकणइयाई तेरासियसुत्तपरिवाडीए, इच्चेसाई वावीसं सुत्ताई चउक्कणइयाई ससमयसुत्तपरिवाडीए / एवामेव सपुवावरेण अट्ठासोति सुत्ताई भवंतीतिमक्खयाई / से त्तं सुत्ताई। सूत्र का स्वरूप क्या है ? सूत्र अठासी होते हैं, ऐसा कहा गया है। जैसे-१ ऋजुक, 2 परिणतापरिणत, 3 बहुभंगिक, 4 विजयचर्चा, 5 अनन्तर, 6 परम्पर, 7 समान (समानस), Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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