________________ 42] [समवायाङ्गसूत्र रहेगा। फिर भी इसे गुणस्थान संज्ञा दी गई है, इसका कारण यह है कि इस स्थान वाले जीवों के यथार्थ गुणों का विनाश नहीं हुआ है, किन्तु कर्मों के प्रावरण से उनका वर्तमान में प्रकाश नहीं हो रहा है। 2. सासादन या सास्वादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान --जब कोई भव्य जीव मिथ्यात्वमोहनीय कर्म का और अनन्तानुबंधी कषायों का उपशम करके सम्यग्दृष्टि बनता है, तब वह उस अवस्था में अन्तर्मुहूर्त काल ही रहता है। उस काल के भीतर कुछ समय शेष रहते हुए यदि अतन्तानुबन्धी कषाय का उदय आ जावे, तो वह नियम से गिरता है और एक समय से लेकर छह प्रावली काल तक वमन किये गये सम्यक्त्व का कुछ आस्वाद लेता रहता है। इसी मध्यवर्ती पननोन्मुख दशा का नाम सास्वादन गुणस्थान है। तथा यह जीव सम्यक्त्व की प्रासादना (विराधना) करके गिरा है, इसलिए इसे सासादान सम्यग्दृष्टि भी कहते हैं। 3. सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान-प्रथम वार उपशम सम्यक्त्व प्राप्त करते हुए जीव मिथ्यात्व कर्म के मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृतिरूप तीन विभाग करता है। ता है। इनमें से उपशम सम्यक्त्व का अन्तर्मुहूर्त काल पूर्ण होते ही यदि सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति का उदय हो जाता है, तो वह अर्धसम्यक्त्वी और अर्धमिथ्यात्वी जैसी दृष्टिवाला हो जाता है / इसे ही तीसरा सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थान कहते हैं। इसका काल अन्तर्मुहूर्त ही है / अत: उसके पश्चात् यदि सम्यक्त्वप्रकृति का उदय हो जाय तो वह ऊपर चढ़कर सम्यक्त्वो बन जाता है। और यदि मिथ्यात्व कर्म का उदय हो जाय, तो वह नीचे गिरकर मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में आ जाता है। 4. अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान-दर्शन मोहनीयकर्म का उपशम, क्षय या क्षयोपशम करके जीव सम्यग्दृष्टि बनता है। उसे प्रात्मस्वरूप का यथार्थ भान हो जाता है, फिर भी चरित्रमोहनीय कर्म के उदय से वह सत्य मार्ग पर चलने में असमर्थ रहता है और संयमादि के पालन करने की भावना होने पर भी व्रत, संयमादि का लेश मात्र भी पालन नहीं कर पाता है / विरति या त्याग के अभाव से इसे अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान कहा जाता है / इस गुणस्थान को चारों गतियों के संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीव प्राप्त कर सकते हैं।। 5. विरताविरत गुणस्थान--जब उक्त सम्यग्दृष्टि जीव के अप्रत्याख्यान कषाय का उपशम या क्षयोपशम होता है, तब वह त्रसहिंसादि स्थूल पापों से विरत होता है, किन्तु स्थावरहिंसादि सूक्ष्म पापों से अविरत ही रहता है। ऐसे देशविरत अणुव्रती जीव को विरताविरत गुणस्थान वाला कहा जाता है। इस गुणस्थान को केवल मनुष्य और कर्मभूमिज कोई सम्यक्त्वी तिर्यंच प्राप्त कर सकते हैं। 6. प्रमत्तसंयत गुणस्थान जब उक्त सम्यग्दष्टि जीव के प्रत्याख्यानावरण कषाय का उपशम पशम होता है, वह स्थल और सूक्ष्म सभी हिंसादि पापों का त्याग कर महाव्रतों को अर्थात सकलसंयम को धारण करता है। फिर भी उसके संज्वलन और नोकषायों के तीव्र उदय होने से कुछ प्रमाद बना ही रहता है। ऐसे प्रमाद-युक्त संयमी को प्रमत्तसंयत गुणस्थानवाला कहा जाता है। 7. अप्रमत्तसंयत गुणस्थान-जब उक्त जीव के संज्वलन और नोकषायों का मन्द उदय होता है, तब वह इन्द्रिय-विषय, विकथा, निद्रादिरूप सर्व प्रमादों से रहित होकर प्रमादहीन संयम का पालन करता है / ऐसे साधु को अप्रमत्तसंयत गुणस्थान वाला कहा जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org