________________ चतुर्दशस्थानक समवाय] पक्षी असंयम, असत्य वचनादि का विस्तृत निरूपण किया गया है। आत्मप्रवाद-पूर्व में प्रात्मा के अस्तित्व को सिद्ध कर उसके भेद-प्रभेदों का अनेक नयों से विवेचन किया गया है। कर्मप्रवाद-पूर्व में ज्ञानावरणादि कर्मों का अस्तित्व सिद्धकर उनके भेद-प्रभेदों एवं उदय-उदीरणादि विविध दशाओं का विस्तृत वर्णन किया गया है / प्रत्याख्यानपूर्व में अनेक प्रकार के यम-नियमों का, उनके अतिचारों और प्रायश्चित्तों का विस्तृत विवेचन किया गया है। विद्यानुवादपूर्व में अनेक प्रकार के मंत्र-तंत्रों का, रोहिणी आदि महाविद्याओं का, तथा अंगुष्ठप्रश्नादि लघुविद्यानों की विधिपूर्वक साधना का वर्णन किया गया है / अवन्ध्यपूर्व में कभी व्यर्थ नहीं जाने वाले अतिशयों का, चमत्कारों का तथा जीवों का कल्याण करने वाली तीर्थकर प्रकृति के बांधने वाली भावनाओं का वर्णन किया गया है। दि० परम्परा में इस पूर्व का नाम कल्याणवाद दिया गया है / प्राणायु या प्राणावाय-पूर्व में जीवों के प्राणों के रक्षक आयुर्वेद के अष्टांगों का विस्तृत विवेचन किया गया है / क्रियाविशाल-पूर्व में अनेक प्रकार की कलाओं का तथा मानसिक, वाचनिक और कायिक क्रिया का सभेद विस्तृत निरूपण किया गया है। लोकबिन्दुसार में लोक का स्वरूप, तथा मोक्ष के जाने के कारणभूत रत्नत्रयधर्म का सूक्ष्म विवेचन किया गया है। ९४-अग्गेणिग्रस्स णं पुवस्स चउद्दस वत्थू पण्णत्ता। समणस्स णं भगवो महावीरस्स चउद्दस समणसाहस्सीमो उक्कोसिया समणसंपया होत्था / अग्रायणीय पूर्व के वस्तु नामक चौदह अर्थाधिकार कहे गये हैं। श्रमण भगवान् महावीर की उत्कृष्ट श्रमण-सम्पदा चौदह हजार साधुओं की थी। ९५--कम्मविसोहिमग्गणं पडुच्च चउद्दस जीवट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहा–मिच्छादिट्टी, सासायणसम्मदिट्ठी, सम्मामिच्छदिट्ठी, अविरयसम्मदिट्ठी, विरयाविरए, पमत्तसंजय, अप्पमत्तसंजए, निअट्टिबायरे, अनिअट्टिबायरे, सुहमसंपराए--उवसामए वा खवए वा, उवसंतमोहे, खीणमोहे, सजोगी केवली, अयोगी केवली। कर्मों की विशुद्धि(निराकरण) को गवेषणा करने वाले उपायों की अपेक्षा चौदह जीवस्थान कहे गये हैं / जैसे—मिथ्यादृष्टि स्थान, सासादन सम्यग्दृष्टि स्थान, सम्यग्मिथ्यादृष्टि स्थान, अविरत सम्यग्दृष्टि स्थान, विरताविरत स्थान, प्रमत्तसंयत स्थान, अप्रमत्तसंयत स्थान, निवृत्तिबादर स्थान, अनिवृत्तिवादर स्थान, सूक्ष्ममाम्प राय उपशामक और क्षपक स्थान, उपशान्तमोह स्थान, क्षीणमोह स्थान, सयोगिकेवली स्थान, और अयोगिकेवली स्थान / विवेचन--सूत्र-प्रतिपादित उक्त चौदह जीवस्थान गुणस्थान के नाम से प्रसिद्ध हैं / उनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है 1. मिथ्यादष्टि गुणस्थान-अनादिकाल से इस जीव की दृष्टि, रुचि, प्रतीति या श्रद्धा मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के उदय से मिथ्या या विपरीत चली आ रही है। यद्यपि इस गुणस्थान वाले जीवों के कषायों की तीव्रता और मन्दता की अपेक्षा संक्लेश की हीनाधिकता होती रहती है, तथापि उनकी दृष्टि मिथ्या या विपरीत ही बनी रहती है। उन्हें आत्मस्वरूप का कभी यथार्थ भान नहीं होता। और जब तक जीव को अपना यथार्थ भान (सम्यग्दर्शन) नहीं होगा, तब तक वह मिथ्यादृष्टि ही बना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org