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________________ 194] [समवायाङ्गसूत्र अस्तिनास्तिप्रवाद पूर्व की अठारह वस्तु और दश चूलिकावस्तु हैं। ज्ञानप्रवाद पूर्व की बारह वस्तु हैं / सत्यप्रवादपूर्व की दो वस्तु हैं। प्रात्मप्रवाद पूर्व की सोलह वस्तु हैं। कर्मप्रवाद पूर्व की तीस वस्तु हैं। प्रत्याख्यान पूर्व की बीस वस्तु हैं। विद्यानुप्रसादपूर्व की पन्द्रह वस्तु हैं। अबन्ध्यपूर्व की बारह वस्तु हैं / प्राणायुपूर्व की तेरह वस्तु हैं / क्रिया विशाल पूर्व की तीस वस्तु हैं / लोकबिन्दुसार पूर्व की पच्चीस वस्तु कही गई हैं। 565- दस चोद्दस अट्ठारसे व बारस दुवे य वत्थूणि / सोलस तीसा वीसा पन्नरस अणुप्पवाययंमि // 1 // बारस एक्कारसमे बारसमे तेरसेव वत्थूणि / तीसा पुण तेरसमे चउदसमे पन्नवीसाओ // 2 // चत्तारि दुवालस अट्ठ चेव दस चेव चूलवत्थूणि / पाइल्लाण चउण्हं सेसाणं चूलिया पत्थि // 3 // से तं पुव्वगयं / उपर्युक्त वस्तुओं की संख्या-प्रतिपादक संग्रहणी गाथाएं इस प्रकार हैं प्रथम पूर्व में दश, दूसरे में चौदह, तीसरे में आठ, चौथे में अठारह, पाँचवें में बारह, छठे में दो, सातवें में सोलह, आठवें में तीस, नवें में बीस, दशवें विद्यानुप्रवाद में पन्द्रह, ग्यारहवें में बारह, बारहवें में तेरह, तेरहवें में तीस और चौदहवें में पच्चीस वस्तु नामक महाधिकार हैं। आदि के चार पूर्त में क्रम से चार, बारह, आठ और दश चूलिकावस्तु नामक अधिकार हैं। शेष दश पूर्वो में चूलिका नामक अधिकार नहीं हैं / यह पूर्वगत है। विवेचन-दिगम्बर ग्रन्थों में पूर्वगत वस्तुनों की संख्या में कुछ अन्तर है। जो इस प्रकार है-प्रथम पूर्व में दश, दूसरे में चौदह, तीसरे में पाठ, चौथे में अठारह, पांचवें में वारह, छटे में वारह, सातवें में सोलह, आठवें में बीस, नवमें में तीस, दशवें के पन्द्रह, ग्यारहवें में दश, बारहवें में दश, तेरहवें में दश और चौदहवें पूर्व में दश वस्तुनामक अधिकार बताये गये हैं। दि० शास्त्रों में आदि के चार पूर्वो की चूलिकानों का कोई उल्लेख नहीं है। __५६६--से कि तं अणुओगे? अणुओगे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा—मूलपढमाणुओगे य गंडियाणुओगे य / से कि तं मूलपढमाणुओगे ? एत्थ णं अरहताणं भगवंताणं पुत्वभवा देवलोगगमणाणि आउंचवणाणि जम्मणाणि अ अभिसेया रायवरसिरीओ सीयाओ पवज्जावो तवा य भत्ता केवलजाणच्याया अतित्थपवत्तणाणि अ संघयणं संठाणं उच्चत्तं पाउं वनविभागो सीसा गणा गणहरा य अज्जा पवत्तणीग्रो संघस्स चउव्विहस्स जं वावि परिणामं जिण-मणपज्जव-प्रोहिनाण-सम्मत्तसुयनाणिणो य वाई अणुत्तरगई य जत्तिया सिद्धा पायोवगआ य जे हि जत्तियाई छेअइत्ता अंतगडा मुणिवरुत्तमा तम-रओघविप्पमुक्का सिद्धिपहमणुत्तरं च पत्ता, एए अन्ने य एवमाइया भावा मूलपढमाणुओगे कहिआ आघविज्जति पण्णविज्जति परूविज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जति / से त्तं मूलपढमाणुओगे। वह अनुयोग क्या है-उसमें क्या वर्णन है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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