________________ उन्नीसवां और बीसवां समवाय : एक विश्लेषण . उन्नीसवें समवाय में बतलाया है—ज्ञातासूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के उन्नीस अध्ययन, जम्बूद्वीप का सूर्य उन्नीस सौ योजन के क्षेत्र को संतप्त करता है। शुक्र, उन्नीस नक्षत्रों के साथ अस्त होता है / उन्नीस तीर्थकर अगारवास में रहकर दीक्षित हुए। नारकों व देवों की उन्नीस पल्योपम व सागरोपम की स्थिति / अगार-वास में रहकर उन्नीस तीर्थंकरों ने अनगार धर्म को ग्रहण किया। स्थानांग सूत्र 76 में बासुपूज्य, मल्ली, अरिष्टनेमि पाव और महावीर ने कुमारावस्था में दीक्षा ग्रहण की। आचार्य अभयदेव ने कुमारवास का अर्य किया है—जिन राज्य नहीं किया। प्रस्तुत सूत्र में भी "अगारवासमझे वसित्ता" का अर्थ चिरकाल तक राज्य करने के पश्चात् दीक्षा ग्रहण की, ऐसा किया है / दिगम्बर परम्परा की दृष्टि से कुमारवास का अर्थ “कुवारा' है / और वे पाँचों को बालब्रह्मचारी मानते हैं / शेष उन्नीस तीर्थंकरों का राज्याभिषेक हुआ उन में से तीन तीर्थंकर तो चक्रवती भी हए / नियुक्तिकार 177 ने यह भी सूचन किया है कि पांच तीर्थंकरों ने प्रथम बय में प्रव्रज्या ग्रहण की थी और उन्नीस तीर्थंकरों ने मध्यम वय में / कल्पसूत्र 178 प्रादि श्वेताम्बर ग्रन्थों के अनुसार भगवान् महावीर ने विवाह किया था / इसलिए आवश्यकनियुक्तिकार द्वितीय भद्रबाहु भगवान महावीर को विवाहित मानते हैं / इस तरह उन्नीसवें समवाय में वर्णन है। बीसवें समवाय में बीस असमाधिस्थान, मुनिसुव्रत महत् की बीस धनुष ऊंचाई, धनोदधि वातवलय बीस हजार योजन मोटे, प्राणत देवेन्द्र के बीस हजार सामानिक देव, प्रत्याख्यान पूर्व के बीस अर्थाधिकार एवं बीस कोटाकोटि सागरोपम का कालचक्र कहा है। किन्हीं नारकों व देवों की स्थिति बीस पल्योपम व सागरोपम की बताई है। जिन कार्यों को करने से स्वयं को या दूसरों को चित्त में संक्लेश उत्पन्न होता है, वे असमाधि स्थान हैं। समाधि के सम्बन्ध में हम पहले प्रकाश डाल चुके हैं। इक्कीसवां व बावीसवां समवाय : एक विश्लेषण इक्कीसवें समवाय में इक्कीस शबल दोष, सात प्रकृतियों के क्षपक नियट्टि-वादर गुण में मोहनीय कर्म की इक्कीस प्रकृतियों का सत्त्व कहा है। अवसपिणी के पांचवें, छठे, आरे तथा उत्सर्पिणी के प्रथम और द्वितीय पारे इक्कीस-इक्कीस हजार वर्ष के हैं और नारकों व देवों की इक्कीस पल्योपम व सागरोपम की स्थिति बतायी है। यहाँ पर शबल का अर्थ है-कर्बुरित, मलीन, या धब्बों से विकृत जो कार्य चारित्र को मलीन बनाते हों, वे शबल हैं। दशाश्रुतस्कन्ध में भी इन दोषों का निरूपण है। इस प्रकार इक्कीसवें समवाय में दोषों से बचने का संकेत है और कुछ ऐतिहासिक सामग्री भी है। बाईसवें समवाय में बाईस परीषह, दष्टिवाद के बाईस सूत्र, पुद्गल के बाईस प्रकार तथा नारको व देवों की बाईस पल्योपम, व बाईस सागरोपम स्थिति का वर्णन है। प्रस्तुत समवाय में परीषह के बाईस प्रकार बताये हैं। भगवती सूत्र 176 और उत्तराध्ययन सूत्र१८० में परीषह का विस्तार से निरूपण है। परीषह एकः कसौटी है। बीज को अंकुरित होने में जल के साथ चिलचिलाती 176. स्थानांग सूत्र, सूत्र 471 177. पावश्यक नियुक्ति-गाथा 243, 248, 445, 458 178. कल्पसूत्र 179. भगवती सूत्र--शतक 80, उद्दे० 8, पृ. 161 180. उत्तराध्ययन सूत्र, अ. 2 [ 45 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org