SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 230
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्विचत्वारिंशस्थानक समवाय] [109 चार पृथिवियों में इकतालीस लाख नारकवास कहे गये हैं। जैसे-- रत्नप्रभा में 30 लाख, पंकप्रभा में 10 लाख, तमःप्रभा में 5 कम एक लाख और महातमःप्रभा में 5 / २४६–महालियाए णं विमाणपविभत्तीए पढमे वग्गे एक्कचत्तालोसं उद्देसणकाला पण्णत्ता। महालिका (महती) विमानप्रविभक्ति के प्रथम वर्ग में इकतालीस उद्देशनकाल कहे गये हैं / // एकचत्वारिंशस्थानक समवाय समाप्त // द्विचत्वारिंशत्स्थानक-समवाय २४७–समणे भगवं महावीरे वायालीसं वासाई साहियाई सामण्णपरियागं पाउणित्ता सिद्ध जाव सव्वदुक्खप्पहीणे। श्रमण भगवान् महावीर कुछ अधिक बयालीस वर्ष श्रमण पर्याय पालकर सिद्ध, बुद्ध, यावत् (कर्म-मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त और) सर्व दुःखों से रहित हुए / २४८–जंबद्दोवस्स णं दीवस्स पुरच्छिमिल्लाओ चरमंताओ गोथभस्स णं आवासपब्वयस्स पच्चच्छिमिल्ले चरमते एस णं वायालीसं जोयणसहस्साइं अबाहातो अंतरं पन्नत्तं / एवं चउद्दिसि पि दोभासे, संखे दयसोमे य / जम्बूद्वीप नामक इस द्वीप को जगती की बाहरी परिधि के पूर्वी चरमान्त भाग से लेकर वेलन्धर नागराज के गोस्तुभनामक प्रावास पर्वत के पश्चिमी चरमान्त भाग तक मध्यवर्ती क्षेत्र का विना किसी बाधा या व्यवधान के अन्तर बयालीस हजार योजन कहा गया है। इसी प्रकार चारों दिशाओं में भी उदकभास शंख और उदकसीम का अन्तर जानना चाहिए। २४९--कालोए णं समुद्दे वायालीसं चंदा जोइंसु वा, जोइंति वा, जोइस्संति वा। वायालीसं सूरिया पभासिसु वा, पभासंति वा, पभासिस्संति वा। कालोद समुद्र में बयालीस चन्द्र उद्योत करते थे उद्योत करते हैं और उद्योत करेंगे। इसी प्रकार बयालीस सूर्य प्रकाश करते थे, प्रकाश करते हैं और प्रकाश करेंगे। २५०-सम्मुच्छिमभुयपरिसप्पाणं उक्कोसेणं वायालीसं वाससहस्साई ठिई पण्णत्ता। सम्मूच्छिम भुजपरिसों की उत्कृष्ट स्थिति बयालीस हजार वर्ष कही गई है। २५१..--नामकम्मे वायालीसविहे पण्णत्ते। तं जहा---गइनामे 1, जाइनामे 2, सरीरनामे 3, सरीरंगोवंगनामे 4, सरीरबंधणनामे 5, सरीरसंघायणनामे 6, संघयणनामे 7, संठाणनामे 8, यण्णनामे 9, गंधनामे 10, रसनामे 11, फासनामे 12, प्रगुरुलहुयनामे 13, अवघायनामे 14, पराघायनामे 15, आणुपुव्वीनामे 16, उस्सासनामे 17, आयवनामे 18, उज्जोयनामे 19, विहगगइनामे 20, तसनामे 21, थावरनामे 22, सुहुमनामे 23, बायरनामे 24, पज्जत्तनामे 25, अपज्जत्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy