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________________ समवायांग के प्रथम समवाय का चतुर्थ सूत्र है 'एगे अदण्डे' तो भगवती२५७ में भी प्रशस्त योगों का प्रवृत्तिरूप व्यापार-प्रदण्ड को एक बताया है। समवायांग के प्रथम समवाय का पांचवा सूत्र है-'एगा किरिया' तो भगवती२५% में भी योगों की प्रवृत्ति रूप क्रिया एक है। समवायांग के प्रथम समवाय का छठा सूत्र है 'एगा अकिरिया' तो भगवती२५० में भी योगनिरोधरूप अक्रिया एक मानी है। समवायांग के प्रथम समवाय का सातवाँ सुत्र है 'एगे लोए' तो भगवती२६० में भी धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों का आधारभुत लोकाकाश एक प्रतिपादित किया है। समवायांग के प्रथम समवाय का आठवां सूत्र है-'एगे अलोए' तो भगवती२६' में भी धर्मास्तिकाय प्रादि द्रव्यों के अभाव रूप अलोकाश का वर्णन है। समवायांग के प्रथम समवाय का छब्बीसवाँ सूत्र है--'इमोसे णं रयणप्पहाए पुढवीए... ... ... ...' तो भगवती 12 में भी रत्नप्रभा नामक पृथ्वी के कुछ नारकों की स्थिति एक पल्योपम की बतायी है। समवायांग सूत्र के प्रथम समवाय का सत्ताईसवाँ सूत्र है-'इमीसे पं........ ...' तो भगवती२५3 में भी रत्नप्रभा-नारकों की उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम की कही है। समवायांग के प्रथम समवाय का उनतीसवाँ सुत्र है-'असुरकुमाराणं देवाणं.......' तो भगवती२६४ में भी असुरकुमार देवों की स्थिति एक पल्योपम की कही है। समवायांग के प्रथम समवाय का तीसवाँ सूत्र है--'असुरकुमाराणं........' तो भगवती२६५ में भी उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम की बतायी है। समवायांग के प्रथम समवाय का इकतीसवाँ सूत्र है--'असुरकुमारिंद.. .....' तो भगवती२६६ में भी असुरकुमारेन्द्र को छोड़कर कुछ भवनपति देवों की स्थिति एक पल्योपम की कही है। समवायांग के प्रथम समवाय का बत्तीसवां सूत्र है-'असं खिज्जवासाउय......' तो भगवती२६७ में भी असंख्य वर्ष की आयु वाले कुछ गर्भज तिर्यंचों की स्थिति एक पल्योपम की बतायी है। 257. भगवती--शत. 11 उ. 11 258. भगवती-श. 1 उ.६ 259. भगवती-श. 25 उ. 7 260. भगवती-श. 12 उ. 7 261. भगवती-श. 12 उ. 7 262. भगवती-श. 1 उ. 1 263. भगवती-श. 1 उ. 1 264. भगवती---श. 1 उ.१ 265. भगवती-श. 1 उ. 1 266. भगवती-श. 1 उ.१ 267. भगवती-श. 1 उ. 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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