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________________ अनेकोत्तरिक-वृद्धि-समवाय] [169 ५०१-पासस्स अरहनो णं तिन्नि सयसाहस्सीओ सत्तावीसं च सहस्साई उक्कोसिया सावियासंपया होत्था / 327000 / पार्श्व अर्हत् के संघ तीन लाख सत्ताईस हजार श्राविकाओं की उत्कृष्ट सम्पदा थी। 502 --धायइखंडे णं दीवे चत्तारि जोयणसयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं पण्णत्ते / 400000 / धातकीखण्ड द्वीप चक्रवालविष्कम्भ की अपेक्षा चार लाख योजन चौड़ा कहा गया है। 503 -लवणस्स णं समुद्दस्स पुरच्छिमिल्लाप्रो चरमंताओ पच्चच्छिमिल्ले चरमंते एस णं पंच जोयणसयसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / 500000 / लवणसमुद्र के पूर्वी चरमान्त भाग से पश्चिमी चरमान्त भाग का अन्तर पाँच लाख योजन है। विवेचन -जम्बूद्वीप एक लाख योजन विस्तृत है। उसके सभी ओर लवणसमुद्र दो-दो लाख योजन विस्तृत है / अतः जम्बूद्वीप का एक लाख तथा पूर्वी और पश्चिमी लवण समुद्र का विस्तार दो-दो लाख ये सब मिलाकर (1-2+2=5) पाँच लाख योजन का सूत्रोक्त अन्तर सिद्ध हो जाता है। ५०४---भरहे णं राया चाउरंतचक्कवट्टी छपुचसयसहस्साई रायमज्झे वसित्ता मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पवइए। 600000 / ____ चातुरन्त चक्रवर्ती भरत राजा छह लाख पूर्व वर्ष राजपद पर आसीन रह कर मुडित हो अगार से अनगारिता में प्रवजित हुए। 505 --जंबूदीवस्स णं दीवस्स पुरच्छिमिल्लाओ वेइयंताओ धायइखंडचक्कवालस्स पच्चच्छिमिल्ले चरमंते सत्त जोयणसयसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / 700000 / इस जम्बूद्वीप की पूर्वी वेदिका के अन्त से धातकोखण्ड के चक्रवाल विष्कम्भ का पश्चिमी चरमान्त भाग सात लाख योजन के अन्तर वाला है। विवेचन--जम्बुद्वीप का एक लाख योजन, लवण समुद्र के पश्चिमी चक्रवाल का दो लाख योजन और धातकीखण्ड के पश्चिमी भाग का चक्रवाल विष्काम चार लाख योजन ये स (1+2-4 = 7) सात लाख योजन का सूत्रोक्त अन्तर सिद्ध हो जाता है। ५०६--माहिदे णं कप्पे अट्ठ विमाणावाससयसहस्साइपण्णत्ताइ / 800000 / माहेन्द्र कल्प में पाठ लाख विमानावास कहे गये हैं। 507 ---अजियस्स णं अरहओ साइरेगाईनव ओहिनाणिसहस्साइहोत्था / 9000 / अजित अर्हन के संघ में कुछ अधिक नौ हजार अवधि ज्ञानी थे।' 1. संस्कृत टीकाकार ने इस सूत्र पर पाश्चर्य प्रकट किया है कि लाखों की संख्या-वर्णन के मध्य में यह सहस्र संख्या वाला सूत्र कैसे पा गया ! उन्होंने यह भी लिखा है कि यह प्रतिलेखक का भी दोष हो सकता है। अथवा 'सहर' शब्द की समानता से यह सूत्र 'शतसहस्र संख्याओं के मध्य में दे दिया गया हो। वस्तुतः इमका स्थान नौ हजार की संख्या में होना चाहिए / अतएव वहाँ मूल पाठ और उसके अनुवाद को [ खड़े कोष्टक के भीतर दे दिया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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