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________________ 44] [समवायानसूत्र नाम से कहा जाता है। इस गुणस्थान का काल भी लघु अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। उसके भीतर यह ज्ञानावरण कर्म को पांच, दर्शनावरण कर्म की नो और अन्तराय कर्म की पांच इन उन्नीस प्रकृतियों के सत्त्व की असंख्यात गुणी प्रतिसमय निर्जरा करता हुअा अन्तिम समय में सबका सर्वथा क्षय करके केवलज्ञान-दर्शन को प्राप्त कर तेरहवें गुणस्थान को प्राप्त होता है। 13. सयोगिकेवली गुणस्थान-इस गुणस्थान में केवली भगवान् के योग विद्यमान रहते हैं, अत: इसका नाम सयोगिकेवली गुणस्थान है। ये सयोगिजिन धर्मदेशना करते हुए विहार करते रहते हैं। जीवन के अन्तर्मुहूर्त मात्र शेष रहने पर ये योगों का निरोध करके चौदहवें गुणस्थान में प्रवेश करते हैं। 14. अयोगिकेवलो गुणस्थान--इस गुणस्थान का काल 'अ, इ, उ, ऋ, लु' इन पांच ह्रस्व अक्षरों के उच्चारणकाल-प्रमाण है। इतने ही समय के भीतर वे वेदनीय, प्रायू, नाम और गोत्रकर्म की सभी सत्ता में स्थित प्रकृतियों का क्षय करके शुद्ध निरंजन सिद्ध होते हुए सिद्धालय में जा विराजते हैं और अनन्त स्वात्मोत्थ सूख के भोक्ता बन जाते हैं। ९६-भरहेरवयानो णं जीवाश्रो चउद्दस चउद्दस जोयणसहस्साइं चत्तारि अ एगुत्तरे जोयणसए छच्च एगणवीसे भागे जोयणस्स प्रायामेणं पण्णत्तायो। भरत और ऐरवत क्षेत्र की जीवाएं प्रत्येक (144016) चौदह हजार चार सौ एक योजन और एक योजन के उन्नीस भागों में से छह भाग प्रमाण लम्बी कही गई हैं। विवेचन–डोरी चढ़े हुए धनुष के समान भरत और ऐरवत क्षेत्र का प्राकार है। उसमें डोरी रूप लम्बाई को जीवा कहते हैं / वह उक्त क्षेत्रों की (144016) योजन प्रमाण लम्बी है / ९७–एगमेगस्स णं रन्नो चाउरंतचक्कवट्टिस्स चउद्दस रयणा पण्णत्ता, तं जहा-इत्थीरयणे, सेणावइरयणे, गाहावइरयणे, पुरोहियरयणे, बडइरयणे, प्रासरयणे, हत्थिरयणे, असिरयणे, दण्डरयणे चक्करयणे, छत्तरयणे, चम्मरयणे, मणिरयणे, कागिणिरयणे। प्रत्येक चातुरन्त चक्रवर्ती राजा के चौदह-चौदह रत्न होते हैं। जैसे-स्त्रीरत्न, सेनापतिरत्न, गृहपतिरत्न, पुरोहितरत्न, वर्धकीरत्न, अश्वरत्न, हस्तिरत्न, असिरत्न, दंडरत्न, चक्ररत्न, छत्ररत्न, चर्मरत्न, मणिरत्न और काकिणिरत्न।। विवेचन-चेतन या अचेतन वस्तुओं में जो वस्तु अपनी जाति में सर्वोत्कृष्ट होती है, उसे रत्न कहा जाता है। प्रत्येक चक्रवर्ती के समय में जो सर्वश्रेष्ठ सुन्दर स्त्री होती है, वह उसकी पट्टरानी बनती है और उसे स्त्रीरत्न कहा जाता है। इसी प्रकार प्रधान सेना-नायक को सेनापतिरत्न, प्रधान कोठारी या भंडारी को गृहपतिरत्न, शान्तिकर्मादि करानेवाले पुरोहित को पुरोहितरत्न, रथादि के निर्माण करने वाले बढ़ई को वर्धकिरत्न, सर्वोत्तम घोड़े को अश्वरत्न और सर्वश्रेष्ठ हाथी को हस्तिरत्न कहा जाता है। ये सातों चेतन पंचेन्द्रिय रत्न हैं / शेष सात एकेन्द्रिय कायवाले रत्न हैं। कहा जाता है कि प्रत्येक रत्न की एक-एक हजार देव सेवा करते हैं। इसीसे उन रत्नों की सर्वश्रेष्ठता सिद्ध है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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