________________ 234] [समवायाङ्गसूत्र 657 ---जंबद्दीवेणं [दीवे भारहे वासे इमोसे प्रोसप्पिणीए नव दसारमंडला होत्था / तं जहा–उत्तमपुरिसा मज्झिमपुरिसा पहाणपुरिसा ओयंसी तेयंसी बच्चसी जसंसी छायंसी कंता सोमा सुभगा पियदंसणा सुरूबा सुहसीला सुहाभिगमा सय्वजणणयणकंता ओहबला अतिबला महाबला अनिहता अपराइया सत्तुमद्दणा रिपुसहस्समाणमहणा साणुक्कोसा अमच्छरा अचवला अचंडा मियमंजुलपलावहसिया गंभीरमधुर-पडिपुण्णसच्चवयणा अब्भुवयवच्छला सरण्णा लवखण-बंजणगुणोववेप्रा माणम्माणपमाणपडिपुण्ण-सुजायसव्वंगसुंदरंगा ससिसोमागार-कंत-फ्यिदंसणा अमरिसण पयंडदंडप्पभारा गंभीरदरिसणिज्जा तालद्धओविद्ध-गरुलकेऊ, महाधणुविकड्या महासत्तसारा दुद्धरा धणुद्धरा धीरपुरिसा जुद्धकितिपुरिसा विउलकुलसमुन्भवा महारयणविहाडगा अद्धभरहसामी सोमा रायकुलवंसतिलया अजिया अजियरहा हल-मुसल-कणक-पाणी संख-चक्क-गय-सत्ति-नंदगधरा पवरुज्जल-सुक्कत-विमल-गोत्थुभ-तिरीडधारी कुडल-उज्जोइयाणणा पुडरीयणयणा एकावलि-कण्ठलइयवच्छा सिरिवच्छ-सुलंछणा वरजसा सव्वोउयसुरभि-कुसुम-रचित-पलंब-सोभंत-कंत-विकसंतविचित्तवर-मालरइय-वच्छा अट्ठसय-विभत्त-लक्खण-पसत्थ-सुबर-विरइयंगमंगा मत्तगयरिद-ललियविषकम-विलसियगई सारय-नवथणिय-महर-गंभीर-कोंच-निग्घोस-दभिसरा कडिसत्तग-नील-पीयकोसेज्जवाससा पवरदित्ततेया नरस्सोहा नरवई नरिंदा नरवसहा मरुयवसभकप्पा अब्भहियरायतेयलच्छीए दिप्पमाणा नीलग-पीयगवसणा दुवे दुवे राम-केसवा भायरो होत्था / तं जहा इस जम्बूद्वीप में इस भारतवर्ष के इस अवसर्पिणीकाल में नौ दशारमंडल (बलदेव और वासुदेव समुदाय) हुए हैं। सूत्रकार उनका वर्णन करते हैं--- वे सभी बलदेव और वासुदेव उत्तम कुल में उत्पन्न हुए श्रेष्ठ पुरुष थे, तीर्थकरादि शलाका-पुरुषों के मध्यवर्ती होने से मध्यम पुरुष थे, अथवा तीर्थंकरों के बल की अपेक्षा कम और सामान्य जनों के बल की अपेक्षा अधिक बलशाली होने से वे मध्यम पुरुष थे। अपने समय के पुरुषों के शौर्यादि गुणों की प्रधानता की अपेक्षा वे प्रधान पुरुष थे। मानसिक बल से सम्पन्न होने के कारण प्रोजस्वी थे। देदीप्यमान शरीरों के धारक होने से तेजस्वी थे। शारीरिक बल से संयुक्त होने के कारण वर्चस्वी थे, पराक्रम के द्वारा प्रसिद्धि को प्राप्त करने से यशस्वी थे। शरीर की छाया (प्रभा) से युक्त होने के कारण वे छायावन्त थे। शरीर की कान्ति से युक्त होने से कान्त थे, चन्द्र के समान सौम्य मुद्रा के धारक थे, सर्वजनों के वल्लभ होने से वे सुभग या सौभाग्यशाली थे। नेत्रों को अतिप्रिय होने से वे प्रियदर्शन थे। समचतुरस्र संस्थान के धारक होने से वे सुरूप थे। शुभ स्वभाव होने से वे शुभशील थे / सुखपूर्वक सरलता से प्रत्येक जन उनसे मिल सकता था, अतः वे सुखाभिगम्य थे। सर्व जनों के नयनों के प्यारे थे। कभी नहीं थकनेवाले अविच्छिन्न प्रवाहयुक्त बलशाली होने से वे अोघबली थे, अपने समय के सभी पुरुषों के बल का अतिक्रमण करने से अतिबली थे, और महान् प्रशस्त या श्रेष्ठ बलशाली होने से वे महाबली थे। निरुपक्रम आयुष्य के धारक होने से अनिहत अर्थात् दूसरे के द्वारा होने वाले घात या मरण से रहित थे, अथवा मल्ल-युद्ध में कोई उनको पराजित नहीं कर सकता था, इसी कारण वे अपराजित थे। बड़े-बड़े युद्धों में शत्रुओं का मर्दन करने से वे शत्रु-मर्दन थे, सहस्रों शत्रुओं के मान का मथन करने वाले थे। आज्ञा या सेवा स्वीकार करने वालों पर द्रोह छोड़कर कृपा करने वाले थे। वे मात्सर्य-रहित थे, क्योंकि दूसरों के लेश मात्र भी गुणों के ग्राहक थे। मन वचन काय की स्थिर प्रवृत्ति के कारण वे अचपल (चपलता-रहित) थे। निष्कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org