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________________ द्वात्रिंशत्स्थानक समवाय] . बत्तीस देवेन्द्र कहे गये हैं / जैसे----१. चमर, 2. बली, 3. धरण, 4. भूतानन्द, यावत् (5. वेणुदेव, 6 वेणुदाली, 7. हरिकान्त, 8. हरिस्सह, 9. अग्निशिख, 10. अग्निमाणव, 11. पूर्ण, 12. वशिष्ठ, 13. जलकान्त, 14. जलप्रभ. 15. अमितगति, 16. अमितवाहन, 18. प्रभंजन) 19. घोष, 20. महाघोष, 21. चन्द्र, 22. सूर्य, 23, शक्र. 24. ईशान, 25. सनत्कुमार, यावत् (26. माहेन्द्र, 27. ब्रह्म, 28. लान्तक, 29. शुक्र, 30. सहस्रार) 31. प्राणत, 32. अच्युत / विवेचन-भवनवासी देवों के दश निकाय हैं और प्रत्येक निकाय के दो दो इन्द्र होते हैं, अतः चमर और बली से लेकर घोष और महाघोष तक के बीस इन्द्र भवनवासी देवों के हैं / ज्योतिष्क देवों के चन्द्र और सूर्य ये दो इन्द्र हैं। शेष शक्र आदि दश इन्द्र वैमानिक-देवों के हैं। व्यन्तर देवों के आठों निकायों के सोलह इन्द्रों की अल्प ऋद्धिवाले होने से यहाँ विवक्षा नहीं की गई है। २११-कुथुस्स गं अरहालो बत्तीसहिआ बत्तीसं जिणसया होत्था / कुन्थु अर्हत् के बत्तीस अधिक बत्तीस सौ (3232) केवलि जिन थे। २१२-सोहम्मे कप्पे बत्तीसं विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता। रेवइणक्खत्ते बत्तीसइतारे पण्णत्ते / बत्तीसतिविहे गठे पण्णत्ते / सौधर्म कल्प में बत्तीस लाख विमानावास कहे गये हैं। रेवती नक्षत्र बत्तीस तारावाला कहा गया है। बत्तीस प्रकार के नृत्य कहे गये हैं। २१३-इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं बत्तीसं पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। अहे सत्तमाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं बत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता / असुरकुमाराणं देवाणं प्रत्येगइयाणं बत्तीसं पलिओवमाणं ठिई पण्णत्ता / सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु देवाणं अत्थेगइयाणं बत्तीस पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। _ इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति बत्तीस पल्योपम कही गई है। अधस्तन सातवीं पृथिवी में कितनेक नारकियों की स्थिति बत्तीस सागरोपम कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति बत्तीस पल्योपम कही गई है। सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति बत्तीस पल्योपम कही गई है। २१४–जे देवा विजय-वेजयंत-जयंत-अवराजियविमाणेसु देवत्ताए उबवण्णा तेसि णं देवाणं अत्थेगइयाणं बत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णता / ते णं देवा बत्तीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा, पाणमंति वा, उस्ससंति चा, नीससंति वा / तेसि णं देवाणं बत्तीसवाससहस्सेहिं प्राहारट्ठे समुप्पज्जइ / संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे बत्तीसाए भवग्गणेहि सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / जो देव विजय, वैयजन्त, जयन्त और अपराजित विमानों में देव रूप से उत्पन्न होते हैं, उनमें से कितनेक देवों की स्थिति बत्तीस सागरोपम कही गई है। वे देव बत्तीस अर्धमासों (सोलह मासों) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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