________________ विवेक है। कितने ही कार्य परिस्थिति-बिशेष से अर्थ रूप होते हैं। परिस्थिति परिवर्तन होने पर वे ही कार्य अनर्थ रूप भी हो जाते हैं। प्राचार्य उमास्वाति ने अर्थ और अनर्थ शब्द की परिभाषा इस प्रकार की है-- जिससे उपभोग, परिभोग होता है वह श्रावक के लिये अर्थ है और उससे भिन्न जिसमें उपभोग-परिभोग नहीं होता है, वह अनर्थदण्ड है / प्राचार्य अभयदेव ने लिखा है कि अर्थ का अभिप्राय "प्रयोजन" है। गृहस्थ अपने खेत, घर, धान्य, धन की रक्षा या शरीर पालन प्रभाति प्रवृत्तियां करता है। उन सभी प्रवृत्तियों में प्रारम्भ के द्वारा प्राणियों का उपमर्दन होता है। वह अर्थदण्ड है। दण्ड, निग्रह, यातना और विनाश ये चारों शब्द एकार्थक हैं / अर्थदण्ड के विपरीत केवल प्रमाद, कुतुहल, अविवेक पूर्वक निष्प्रयोजन निरर्थक प्राणियों का विघात करना अनर्थदण्ड है / साधक अनर्थदण्ड से बचता है। अर्थदण्ड और अनर्थदण्ड के पश्चात् जीवराशि और अजीवराशि का कथन किया गया है। टीकाकार प्राचार्य अभयदेव ने टीका में प्रस्तुत विषय को प्रज्ञापनासूत्र से उसके भेद और प्रभेदों को समझने का सूचन किया है। हम यहाँ पर उतने विस्तार में न जाकर पाठकों को वह स्थल देखने का संकेत करते हुये यह बताना चाहेंगे कि भगवान महावीर के समय जीव और अजीब तत्त्वों की संख्या के सम्बन्ध में अत्यधिक मतभेद थे। एक ओर उपनिषदों का अभिमत था कि सम्पूर्ण-विश्व एक ही तत्त्व का परिणाम है तो दूसरी ओर सांख्य के अभिमत से जीव और अजीव एक हैं। बौद्धों का मन्तव्य है कि अनेक चित्त और अनेक रूप हैं। इस दृष्टि से जैन दर्शन का मन्तव्य आवश्यक था। अन्य दर्शनों में केवल संख्या का निरूपण है। जब कि प्रज्ञापना सूत्र में अनेक दृष्टियों से चिन्तन किया गया है। जिस तरह से जीवों पर चिन्तन है, उसी तरह से अजीव के सम्बन्ध में भी चिन्तन है। यहाँ तो केवल अति संक्षेप में सूचना दी गई है। 20 बन्ध के दो प्रकार बताये हैं, रागबन्ध और द्वेषबन्ध / यह बन्ध केवल मोहनीय कर्म को लक्ष्य में लेकर के बताया गया है। राग में माया और लोभ का समावेश है और द्वेष में क्रोध और मान का समावेश है। अंगुत्तर निकाय में तीन प्रकार का समुदाय माना है---लोभ से, द्वेष से और मोह से / उन सभी में मोह अधिक प्रबल हैं।" इस प्रकार दो राशि का उल्लेख है। यह विशाल संसार दो तत्त्वों से निर्मित है। सृष्टि का यह विशाल रथ उन्हीं दो चक्रों पर चल रहा है। एक तत्व है चेतन और दूसरा तत्व है जड़। जीव और अजीव ये दोनों संसार नाटक के सूत्रधार हैं। वस्तुतः इनकी क्रिया-प्रतिक्रिया ही संसार है। जिस दिन ये दोनों साथी बिछुड़ जाते हैं उस दिन संसार समाप्त हो जाता है। एक जीव की दृष्टि से परस्पर सम्बन्ध का विच्छेद होता है पर सभी जीवों की अपेक्षा से नहीं। अतः राशि के दो प्रकार बताये हैं। द्वितीय स्थान में दो की संख्या को लेकर चिन्तन है। इसमें से बहुत सारे सूत्र ज्यों के त्यों स्थानांग में भी प्राप्त हैं। तृतीय समवाय : विश्लेषण तृतीय स्थान में तीन दण्ड, तीन गुप्ति, तीन शल्य, तीन गौरव, तीन विराधना, मगाशिर पुष्य, आदि के तीन तारे, नरक, और देवों की तीन पल्योपम, व तीन सागरोपम की स्थिति तथा कितने ही भवसिद्धिक जीव तीन भव करके मुक्त होंगे, प्रादि का निरूपण है। 17. उपभोगपरिभोगी अस्याऽमारिणोऽर्थः / तदव्यतिरिक्तोऽनर्थः / -तत्त्वार्थभाष्य 7-16 18. उपासकदशांग, १-टीका 19. समवायांग सूत्र 149, अभयदेव वृत्ति 20. जैन आगम साहित्य-मनन और मीमांसा, देवेन्द्रमुनि शास्त्री, पृ. 239 से 241 21. अंगुत्तरनिकाय 3, 97 तथा 6 / 39 [ 25] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org