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________________ 148 ] [ समवायाङ्गसूत्र विवेचन--सतासीवें स्थानक में आवास पर्वतों का मेरु पर्वत से सतासी हजार योजन का अन्तर बताया गया है, उसमें गोस्तूप आदि चारों आवास पर्वतों के एक-एक हजार योजन विस्तार को जोड़ देने पर अठासी हजार योजन का सूत्रोक्त अन्तर सिद्ध हो जाता है। 411 –बाहिराओ उत्तराओ णं कट्ठाओ सूरिए पढम छम्मासं अयमाणे चोयालीसइमे मंडलगते अट्ठासीति इगभट्ठिभागे मुहत्तस्स दिवसखेत्तस्स निवुड्ढेत्ता रयणिखेत्तस्स अभिनिवुड्डत्ता सूरिए चारं चरइ। दक्खिणकट्टाओ णं सूरिए दोच्च छम्मासं अयमाणे चोयालीसतिमे मंडलगते अट्ठासोई इगसटिठभागे मुहत्तस्स रयणीखेत्तस्स निवुड्डत्ता दिवसखेत्तस्स अभिनिवुट्टित्ता णं सूरिए चारं चर। बाहरी उत्तर दिशा से दक्षिण दिशा को जाता हुआ सूर्य प्रथम छह मास में चवालीसवें मण्डल में पहुंचने पर मुहूर्त के इकसठिये अठासी भाग दिवस क्षेत्र (दिन) को घटाकर और रजनीक्षेत्र (रात) को बढ़ा कर संचार करता है। [इसी प्रकार] दक्षिण दिशा से उत्तर दिशा को जाता हुआ सूर्य दूसरे छह मास पूरे करके चवालीसवें मण्डल में पहुंचने पर मुहूर्त के इकसठिये अठासी भाग रजनी क्षेत्र (रात) के घटाकर और दिवस क्षेत्र (दिन) के बढ़ा कर संचार करता है। विवेचन --सूर्य छह मास दक्षिणायन और छह मास उत्तरायण रहता है। जब वह उत्तर दिशा के सबसे बाहरी मंडल से लौटता हुया दक्षिणायन होता है उस समय वह प्रतिमंडल पर एक मुहूर्त के इकसठ भागों में से दो भाग प्रमाण (31) दिन का प्रमाण घटाता हुआ और इतना ही (35) रात का प्रमाण बढ़ाता हुआ परिभ्रमण करता है / इस प्रकार जब वह चवालीसवें मंडल पर परिभ्रमण करता है, तब वह (3.444-5) मुहर्त के अठासी इकसठ भाग प्रमाण दिन को घटा देता है और रात को उतना ही बढ़ा देता है / इसी प्रकार दक्षिणायन से उत्तरायण जाने पर चवालीसवें मंडल में अठासी इकसठ भाग रात को घटा कर और उतना ही दिन को बढ़ाकर परिभ्रमण करता है। इस वर्तमान मिनिट से किण्ड के अनुसार सूर्य अपने दक्षिणायन काल में प्रतिदिन 1 मिनिट 5:34 सेकिण्ड दिन की हानि और रात की वृद्धि करता है / तथा उत्तरायण काल के प्रतिदिन 1 मी०५१३४ से० दिन को वृद्धि और रात की हानि करता हुआ परिभ्रमण करता है। उक्त व्यवस्था के अनुसार दक्षिणायन के अन्तिम मंडल में परिभ्रमण करने पर दिन 12 मुहूर्त का होता है और रात 18 मुहूर्त की होती है। तथा उत्तरायण के अन्तिम मंडल में परिभ्रमण करने पर दिन 18 मुहूर्त का होता है और रात 12 मुहूर्त की होती है / अष्टाशीतिस्थानक समवाय समाप्त। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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