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________________ | समवायाङ्गसूत्र 72 कलाओं के नामों और अर्थों में भिन्नता पाई जाती है। टीकाकार के समक्ष भी यह भिन्नता थी। अतएव उन्होंने लौकिक शास्त्रों से जान लेने का निर्देश किया है। किसी कला में किसी का अन्तर्भाव भी हो जाता है / सर्वत्र एकरूपता नहीं है। 357-- समुच्छिम-खयरपंचिदियतिरिक्ख-जोणियाणं उक्कोसेणं वावतरि वाससहस्साई ठिई पण्णत्ता। सम्मूर्छिम खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यम्योनिक जीवों की उत्कृष्ट स्थिति बहत्तर हजार वर्ष की कही गई है। // द्रिसप्ततिस्थानक समवाय समाप्त। त्रिसप्ततिस्थानक-समवाय ३५८-हरिवास-रम्मयवासयाओ णं जीवाओ तेवतरि तेवरि जोयणसहस्साई नव य एगुत्तरे जोयणसए सत्तरसय-एगूणवीसहभागे जोयणस्स अद्धभागं च पायामेणं पण्णत्ताभो। हरिवर्ष और रम्यकवर्ष की जीवाएं तेहत्तर-तेहत्तर हजार नौ सौ एक योजन और एक योजन के उन्नीस भागों में से साढ़े सत्तरह भाग प्रमाण (7390375 ) लम्बी कही गई है। ३५९-विजए णं बलदेवे तेवतरि वाससयसहस्साई सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे। विजय बलदेव तेहत्तर लाख वर्ष की सर्व प्रायु भोग कर सिद्ध, बुद्ध, कर्मों से मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्व दुःखों से रहित हुए। // त्रिसप्ततिस्थानक समवाय समाप्त // चतुःसप्ततिस्थानक-समवाय ३६०-थेरे णं अग्गिभूई गणहरे चोवरि वासाई सव्वाउयं पालइत्ता सिद्ध बुद्धे जाव सम्वदुक्खप्पहीणे। स्थविर अग्निभूति गणधर चौहत्तर वर्ष की सर्व प्रायु भोगकर सिद्ध, बुद्ध, कर्मों से मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्व दुःखों से रहित हुए। ३६१---निसहाम्रो णं वासहरपव्वयाओ तिगिञ्छिदहाओ सीतोया महानदी चोवतरि जोयणसयाई साहियाई उत्तराहिमुही पहित्ता वइरामयाए जिभियाए चउजोयणायामाए पन्नासजोयणविक्खंभाए वइरतले कुडे मया घडमुहपवत्तिएणं मुत्तावलिहारसंठाणसंठिएणं पवाहेणं महया सद्देणं पबडइ / एवं सीता वि दक्खिणाहिमुही भाणियव्वा / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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