________________ समवायांग और आचारांग जिनवाणी के जिज्ञासुओं के लिए आचारांग का सर्वाधिक महत्त्व है। वह सबसे प्रथम अंग है-रचना की दृष्टि से और स्थापना की दृष्टि से भी। प्राचारांग रचनाशैली, भाषाशैली, व विषयवस्तु की दृष्टि से अद्भुत है / आचार और दर्शन दोनों ही दृष्टि से उसका महत्त्व है। हम समवायांग की आचारांग के साथ संक्षेप में तुलना कर रहे हैं। समवायांग के प्रथम समवाय का तृतीय सूत्र है-एगे दण्डे, आचारांग२२६ में भी इसका उल्लेख है। समवायांग के पांचवें समवाय का द्वितीय सूत्र-'पंच महव्वया पण्णता...' है तो आचारांग 23 deg में भी यह निरूपण है। समवायांग के पांचवें समवाय का तृतीय सूत्र--'पंच कामगुणा पण्णता........' है तो आचारांग 3' में भी इसका प्रतिपादन हुआ है। समवायांग के पांचवें समवाय में छट्ठा सूत्र-'पंच निजरढाणा पण्णत्ता........' है तो आचारांग२३२ में भी यह वर्णन प्राप्त है / समवायांग के ? समवाय का द्वितीय सूत्र-'छ जीवनिकाय पण्णत्ता........' है तो प्राचारांग:33 में भी इसका निरूपण है। समवायांग के सातवें समवाय का तृतीय सूत्रसमणे भगवं महावीरे सत्तरयणीओ उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था... ...' है तो पाचारांग२३४ में भी महावीर की अवगाहना का यही वर्णन है। ........" है तो समवायांग के नवम समवाय का तृतीय सूत्र--"नव बंभचेरा पण्णत्ता...' आचारांग 235 में भी ब्रह्मचर्य का वर्णन प्राप्त है। समवायांग के पच्चीसवें समवाय का पहला सुत्र-"पुरिम-पच्छिमगाणं तित्थगराणं पंच-जामस्स पणवीसं भावणाओ पण्णत्ताओ..... .." है तो आचारांग 236 में भी पांच महाव्रतों की पच्चीस भावनाओं का उल्लेख हुआ है। समवायांग के तीसवें समवाय में "समणे भगवं महावीरे तीसं वासाई आगारवासमझे वसित्ता प्रागाराग्रो अणगारियं पम्वइए .............." है तो याचारांग२३७ में भी भगवान महावीर की दीक्षा का यही वर्णन है। 229. आचारांग श्रु. 1 अ. 1 उ. 4 230. आचारांग श्रु. 3 सू. 179 231. प्राचारांग श्रु. 1 अ. 2 उ. 1 सू. 65 232. प्राचाररांग श्र. 3 सू. 179 233. आचारांग श्रु. 1 अ. 1 उ. 1 से 7 234. आचारांग श्रु. 2 श्रः.१५ उ. 1 सू. 166 235. आचारांग श्रु. 1 अ. 1 से 9 / 236. आचारांग श्रु. 2 चु. 3 मू. 179 237. आचारांग श्रु. 2 चु, 3 सू. 179 [ 58 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org