________________
वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ
आत्मानुभवसे विमुख करनेमें कभी भी समर्थ न हो सका । उनका आत्मध्यान सदा वृद्धिंगति ही रहा है।
जब मैं वणाजी के बारेमें सोचता हूं तभी मुझे इस बात पर अटल श्रद्धा होती है कि 'पूवोंपार्जित पुण्य निश्चय ही अपना रस देता है. ..........' नहीं तो इस पंचम-काल में अजैनके घरमें जन्म प्राप्त व्यक्तिको सच्चा जैनी बननेका सद्भाग्य क्यों कर मिलता,"जब कि जैनकुलोत्पन्न व्यक्ति निकृष्टों जैसा हीनाचरण करते दृष्टि गोचर होते है ।"
मर्यादाका सुन्दर निभाना तो उनकी अपनी खासियत है ।' दिगम्बर जैन मुनियोंके प्रति उनकी क्या आस्था है ? इस सामाजिक शंकाका उत्तर क्या "हे विभो ! वह दिन कब आवेगा जब मैं भी मुनि होऊंगा।" उद्गारसे नहीं होता ? आगन-प्रणीत मुनिमुद्राका क्यों न इच्छुक होगा ? और किसीका भी वीतरागताका उपासक व्यक्ति आत्मधर्म दिल दुखाकर अप्रसन्न न करने वाला साधु क्यों कर दिगम्बर साधुनोंके प्रति सविनय न होगा !
भगवान जिनेन्द्र के स्मरण पूर्वक सदा यही भावना भाता हूं कि पूज्यवर्णीजी चिरायु हों और उनके द्वारा संसारका कल्याण हो । सिवनी ]
(सिंधई) कुंवरसेन दिवाकर
पूज्यवर्णीजी जैनसमाजके उन रत्नोंमेंसे हैं जिनका प्रकाश वर्तमान में ही नहीं वरन सदा ही समाजके नौजवान कार्यकर्ताओंका पथप्रदर्शन करता रहेगा। उनका विमल शान, उनका श्रादर्श चरित्र
और समाजके प्रति उनकी सेवाएं हमारे लिए अमूल्य देन हैं। अकेले उन्होंने समाजमें जो काम किया है वह सौ कार्यकर्ता मिलकर भी कठिनाईसे कर सकेंगे । परमात्माके ध्यानपूर्वक यही भावना है कि वे चिराय हो । आगरा ]
महेन्द्र, सम्पादक, साहित्य सं०
सुनते हैं पूज्यवणीजी महराजने बड़े बड़े काम करे हैं पर अपन तो अपने परसे सोचत हैं कि वे 'अांधरेकी लठिया' हैं। अज्ञान और गरीबीके मारुस्थल में पड़े हम बुन्देलखण्डीनको ये मतीरा होकर भी सागर से बड़े हैं। ईसे उनके चरणोंमें सैकड़ों प्रणाम । वांसखेडा ]
(से०) मणिकचन्द्र अड़तीस