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दशम अध्याय
है, उसकी अज्ञानता और मूढ़ता का परिहार करता है। अपने उज्ज्वल और प्रामाणिक प्रवचन सुना-सुना कर मानवजगत की बुराई को दूर करता है । इन सब बातों का मूल श्रोत्रेन्द्रिय है । यदि मनुष्य के पास श्रोत्र न हों तो वह इन सब बातों के बोध से वञ्चित ही रह जाता है । श्रोत्रेन्द्रिय की शक्ति ऐसी अनमोल शक्ति है कि जिसे करोंड़ों रुपयों के व्यय करने पर भी उपलब्ध नहीं किया जा सकता । ऐसी नमोल शक्ति को समाप्त कर देना कितना भयंकर पाप है ?
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नेत्रों की ज्योति, दूसरी प्राणशक्ति है । नयनों के द्वारा ही मानव गुरुदर्शन करता है, शास्त्रों को पढ़ता है, खाने, पीने, पहनने, प्रोढ्ने आदि सब वस्तुनों को देखता है । जिसके पास नयन नहीं होते. उसका संसार सूना होता है । इसलिए लोग कहा करते हैं कि 'दांत गए तो खान गया, प्रांख गई तो जहान गया । ' प्रति दिन सड़कों पर श्रन्धों को यह कहते सुना जाता है कि आंखें वालो ! आंखें बड़ी न्यामत हैं । ' ग्रतः शारीरिक अवयवों में नेत्रशक्ति का भी अपना वि-: शिष्ट स्थान है। ऐसी विशिष्ट और सर्वथा उपयोगी नेत्रशक्ति का हनन कर देना पाप क्षेत्र में महान पाप माना गया है ।
तीसरी प्राणशक्ति नासिका है। नासिका के द्वारा सुगन्ध और दुर्गन्ध का बोध होता है। कई बार दुर्गन्धपूर्ण पदार्थ प्रांखों से दिखाई नहीं देता; कहीं इधर-उधर प्रच्छन्न रहता है किन्तु उस परोक्ष दुर्गंधमय पदार्थ का बोध नासिका द्वारा ही प्राप्त किया जाता है: श्रर. वह बोध ही अध्यात्मशास्त्र के " अपवित्र और अस्वच्छ स्थान पर शास्त्रस्वाध्याय नहीं करना इस आदेश के परिपालन में सहायक: प्रमाणित होता है । जिनकी नासिका शक्ति नष्ट हो जाती है, उनके भास-पास चाहे कितनी भी गन्दगी पड़ी हो पर बिना देखे उसका उन
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