Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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विभिन्न लेखक : संस्मरण और श्रद्धांजलियाँ : ७७ या वर्ग में आंखें खोली ? इन प्रश्नों से हमें यहाँ कोई विशेष सरोकार नहीं. हमें तो केवल इतना ही देखना और जानना है कि उन्होंने क्या कुछ प्राप्त किया इस निर्ग्रन्थ श्रमणपरम्परा में अपने आपको दीक्षित-शिक्षित करके ? क्योंकि हमारी गौरवशाली जैन सांस्कृतिक परम्परा हमें बाह्यदर्शन के लिए नहीं, वरन् अन्तर्दर्शन के लिए प्रेरित करती है. उनकी अध्यात्म-साधना का काल काफी लम्बा रहा है. गणना की दृष्टि से उनकी अध्यात्म-साधना के चौंसठ वर्ष अपना कुछ अर्थ रखते हैं, आज के इस विलासिता-प्रधान भुक्ति-युग में ! इस लम्बी अवधि में उन्होंने बहुत कुछ उपलब्ध किया होगा. उनका यह अनुभव-प्रकाश साधकों के मार्ग-दर्शन का कार्य कर सकता है, यदि उसका सही मूल्यांकन कर, उनका शिष्यवर्ग जन-मानस तक उसे पहुँचाने का सत्प्रयत्न करे. वे न तो शब्द-जाल के महारण्य में भटकने वाले कोई वैयाकरणी ही थे, और न बाल की खाल उतारने वाले नैयायिक ही, और न वे दर्शन की गहन गुत्थियों में उलझने वाले दार्शनिक ही थे. वे तो एक अध्यात्म-निष्ठ सरलमना लोकोत्तर प्रवृत्ति के सन्त थे. इस बात का अनुभव मुझे उनके साथ की गई कुछ समय तक की वीर-भूमि मेवाड़ की सह्यात्रा में हुआ. अध्यात्म-रस में पगे दोहे और पद जब कभी वे तरंगित हृदय से गाते थे तो मन-मयूर मस्त हो, मार्ग की सब थकावट भूल, नाच उठता था. कभी-कभी तो वे छोटे-छोटे दोहों के माध्यम से राजपूती इतिहास की बड़ी ही सुन्दर सुनहरी कड़ियाँ खोलकर सामने रख देते थे. उनकी वह सूक्तियाँ उस शुष्क पर्वतीय यात्रा को भी रसमय बना देती थीं. वे अतीत की घटनाएँ अपने में सँजोये मौन पर्वत भी उनके मुख से मुखर हो अपने इतिहास की वीर-वाणी हमारे कणकुहरों में डाल देते थे. उन्होंने जो एक सच्चे हितैषी की सी सहृदयता और एक बालक-सी निश्छलता तथा सरलता प्राप्त की थी, वह प्रत्येक साधक के लिए स्पृहणीय है. यह शिशु की सी सरलता, भद्रता और भव्यता ही उनका व्याकरण था, यही उनका न्याय और दर्शन-शास्त्र था. थोड़े ही शब्दों में उनका जीवन सागर की तरंगों पर साहस की विजली के प्रकाश में बढ़ते हुए नाविकों के लिए एक प्रकाशस्तम्भ था. जिसके प्रकाश में प्रत्येक नाविक अपना मार्ग स्वयं ढूंढ लेता है. इस अनूठे जीवन सत्य को उर्दू के शायर के शब्दों में यूं समझ लीजिए.
"खुशनुमा दुनिया में वो हाजत रवा मीनार हैं। रोशनी से जिनकी मल्लाहों के बेड़े पार हैं !!"
श्रीविजयमुनिजी, महाराज
शास्त्री, साहित्यरत्न श्रमण संघ की विमल विभूति श्रद्धेय हजारीमलजी मनुष्य के मन का विचार निःसन्देह मनुष्य से ऊँचा होता है. जीवन में उसे छूने का प्रयत्न ही साधना है. आरम्भ अन्तर्जगत् से होता है और धीरे-धीरे बहिर्जगत् में उसका विस्तार होता है. वृक्ष का फैलाव बाहर होकर भी उसकी जड़ें धरती में समाई रहती हैं. मनुष्य का बाहरी जीवन, उसके विचार-बीज में से फूटता है. भारतीय संस्कृति में 'सन्त' विचारों का केन्द्र माना जाता है. भारत की पुण्य-भूमि में समय-समय पर सन्त पुरुषों के आगमन ने यहाँ की मिट्टी और हवा में अपने जीवन से, अपने उज्ज्वल कर्म से और अपनी वाणी से जो संस्कार-बीज बोये थे, वे आज भी त्याग, तपस्या और ज्ञान के रूप में यहाँ पर अंकुरित हैं. भारत ने सदैव ही सम्राट् के चरणों में नहीं, सन्त के पावन चरणों में ही अपना मस्तक झुकाया है. इस प्रकार सन्त-जीवन, भारतीय संस्कृति का केन्द्र-बिन्दु रहा है. स्थानकवासी समाज के युग-पुरुषों की लम्बी परम्परा ने समाज को बहुत कुछ दिया है. युग-पुरुषों की उसी लम्बी
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