Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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डॉ० के० ऋषभचन्द्र : पउमचरियं के रचनाकाल-सम्बन्धी कतिपय अप्रकाशित तथ्य : ८८१
पउमचरियं की भाषा जिस लोकभाषा से प्रभावित हुई है. उसको देखते हुए इसका रचना-समय ईसा की प्रथम शताब्दियों में नहीं रखा जा सकता. इस ग्रंथ में प्रयुक्त गाथा छन्द भी इतने उत्कृष्ट रूप में है कि वह सूक्ष्म से सूक्ष्म लक्षणों की कसौटी पर कसा जा सकता है. इन सभी उपरोक्त तत्त्वों के आधार पर पउमचरियं का रचनाकाल ईशा की प्रथम शताब्दी उचित नहीं ठहरता जैसा कि प्रशस्ति में कहा गया है. अनेक प्रमाण यह साबित करते हैं कि इस ग्रन्थ पर विक्रम की पांचवीं शताब्दी के आस-पास के वातावरण का प्रभाव है. पउमचरियं की परवर्ती सीमा निश्चित करने के लिए अब हम उद्योतनसूरि और रविषेण का सहारा लेंगे. उद्योतनसूरि अपने ग्रंथ कुवलयमाला' में, जिसका रचना काल ७७८ ईस्वी सन् है, विमलसूरि के पउमचरियं का उल्लेख करते हैं. इससे एक तो यह प्रमाणित होता है कि पउपचरियं आठवीं शती के पूर्व की रचना है, दूसरा यह कि यदि यह रचना बहुत पुरानी होती तो अन्य स्थान पर किसी पुराने ग्रंथ में इसका उल्लेख अवश्य होना चाहिए था. उद्योतनसूरि ने रविषेण को भी स्मरण किया है. पद्मचरितम् रविषेण का संस्कृत ग्रंथ है. पउमचरियं और पद्मचरितम् की तुलना करने पर स्पष्ट प्रतीत होता है कि एक ग्रंथ किसी दूसरे का रूपान्तर मात्र है. पं० नाथूराम प्रेमी ने यह सिद्ध किया है कि रविष्ण ने अपना पद्मचरितम् पउमचरियं के आधार पर ही रचा.२ इसी मान्यता को दृढ़ करने वाले कतिपय नये प्रमाण प्रस्तुत करने योग्य हैं. पउमचरियं में हनुमान के जन्मसंबन्धी नक्षत्रों और लग्न का जो विवरण है वह ज्योतिषशास्त्र की दृष्टि से गलत है जबकि रविषेण के पद्मचरितम् में वही वर्णन त्रुटिहीन है. यदि विमलसूरि के ग्रंथ का आधार पद्मचरितम् होता तो उसमें त्रुटि आने की कोई गुंजायश नहीं थी. मालूम होता है कि रविषेण ने यह त्रुटि सुधार ली है. ऐसा ही एक और उदाहरण है. पउमचरियं में भरत और भुवनालंकार हस्ती के पूर्व भवों का वर्णन आता है (पउम०८२-१७-१२१). आधे कथानक तक तो हस्ती को अपने पूर्वभवों में मायावी बताया गया है जो कि तिर्यंच योनि में भव प्राप्त करने के लिए उचित भी है, परन्तु बीच में त्रुटि रह जाने के कारण बाद में हस्ती के अन्य पूर्वभवों का सम्बन्ध भरत के पूर्वभवों से जुड़ गया है. पद्म-चरितम् में ऐसा नहीं है. उसमें हस्ती के ही सभी पूर्व भवों में मायावीपन है. भरत के पूर्वभवों में नहीं. स्पष्ट है कि रविषेण ने पउमचरिय की इस असंगति को अपने पद्मचरितम् में सुलझा दिया है (पद्म०८५ २८-१७३). एक अन्य कथानक में राजा का नाम पद्मचरितम् (पर्व ५) के अनुसार विद्युदंष्ट्र है और प्रथम पर्व में विषय की जो सूची है उसमें भी यही नाम है. पउमचरिय में वही नाम सब जगह विज्जुदाढ है, परन्तु पद्मचरितम् में कथानक के उत्तर भाग में उसी को विद्युददृढ़ कहा गया है (पद्म० ५, ३०, पउम०५-२०-४१). स्पष्ट है कि यह नाम प्राकृत विज्जुदाढ का गलत रूपान्तर है जो कि रविषेण ने पूर्वापर का ध्यान रखे विना पउमचरियं के नाम के आधार पर अपनाया है, अन्यथा एक व्यक्ति के दो भिन्न नाम कैसे ? पउमचरियं में एक कथा आती है जिसमें दो कास्तकार भाइयों का वर्णन है और उनको ‘सहोयरा करिसया' कहा गया है (पउम० ३६,६८). रविषेण ने शायद नहीं समझने के कारण या भ्रान्त पाठ होने के कारण उन दो भाइयों के नाम 'सुरप' और 'कर्षक' कर दिये हैं (पद्म० ३६, १३७), कुछ व्यक्तियों के नामों का अध्ययन करने से पता चलता है कि रविषेण ने अपनी कृति में छन्दों के वर्गों का नियमन करने के लिए पउमचरियं में आये हुये नामों के लिए पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग किया है, क्योंकि पद्मचरितम् के नामों को यदि विमलसूरि वैसे के वैसे रखते तो भी उनके मात्रा छन्द में कोई त्रुटि नहीं आती थी, परन्तु रविषेण के साथ यह स्थिति नहीं थी (उदाहरणार्थ-पउम-अरिदमणो जलन-जडी, रिउमहणो-अक्कतेओपद्मः-अरिध्वंसो वह्निजटी, अरिमर्दनः, वह्नितेजाः) इसके दोनों ग्रंथों में पांचवां अध्याय ध्यान देने योग्य है. रविषेणाचार्य कट्टर दिगम्बर थे यह सुविदित है. दिगम्बर परम्परा में दाशरथी राम यानि आठवें बलदेव राम के नाम से ही परिचित हैं, नवें बलदेव यानि कृष्ण के भाई का नाम पद्म पाया जाता है. यदि पद्मचरितम् मौलिक रचना
१. पृ० ३, पंक्ति २७, कुवलयमाला-डा० ए० एन० उपाध्ये. २. जैन साहित्य और इतिहास (१९५६), पृ० १०.
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