Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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रामायण में इसे अवहत्थ कह कर पुकारते हैं. '
अपभ्रंश को दी जाने वाली विभिन्न संज्ञाओं पर विचार करते हुए नामवरसिंह कहते हैं कि 'अवहत्य' 'अवहट्ठ' 'अवहंस' 'अवहट' आदि रूप अपभ्रंश अथवा अपभ्रष्ट के तद्भव रूप हैं. प्राकृत के अपभ्रंश के ग्रंथों में जहाँ संस्कृत के लिए 'सक्कय' और प्राकृत के 'पाइय' आदि रूप व्यवहृत हैं, वहां अपभ्रंश का 'अवब्भंस' और 'अवहंस' हो जाना स्वाभाविक है. उनकी दृष्टि में 'अपभ्रंश', अपभ्रष्ट, अवहंस, अवब्भंस अवहट्ट, अवहट आदि सभी शब्द समानार्थी हैं. किन्तु शिवप्रसाद सिंह इसे नहीं मानते. उनके अनुसार हम इन शब्दों के प्रयोगों के कालचक्र पर विचार करें तो एक महत्त्वपूर्ण तथ्य हमारे सामने आता है.
संस्कृत के आलंकारिकों ने अपभ्रंश भाषा के लिए सर्वत्र अपभ्रंश शब्द का प्रयोग किया. या यह कि उनके द्वारा रखा गया यह नाम ही इस भाषा के लिए रूढ़ हो गया है. किन्तु प्राकृत के कवियों ने इसे अवहंस कहा. अपभ्रंश के कवियों- पुष्पदन्त आदि ने भी इसे अवहंस ही कहा. अवहट्ट कहा अब्दुर्रहमान ने 'प्राकृत पैंगलम्' के टीकाकार वंशीधर ने, विद्यापति और ज्योतिरीश्वर ने इस आधार पर विचार करने से लगता है कि 'अवहट्ट' शब्द का प्रयोग केवल परवर्त्ती अपभ्रंश कवियों ने किया. क्या इस आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि परवर्ती अपभ्रंश के इन लेखकों ने इस शब्द का प्रयोग जान-बूझ कर किया. अपभ्रंश या अवहंस या बहुप्रचलित 'देसी' शब्द का प्रयोग भी कर सकते थे, परन्तु उन्होंने वैसा नहीं किया. इससे सहज अनुमान किया जा सकता है कि अवहट्ट शब्द पीछे का है और इसका उपयोग परवर्ती अपभ्रंश के कवियों ने पूर्ववर्ती अपभ्रंश की तुलना में थोड़ी परिवर्तित भाषा के लिए किया. वंशीधर ने तो अपनी टीका संस्कृत: में सर्वत्र अवहट्ट ही लिखा, जब कि संस्कृत में अपभ्रंश या अपभ्रष्ट का प्रयोग ही प्रायः होता था. अर्थात् इस शब्द के मूल में परिनिष्ठित अपभ्रंश के और भी अधिक विकसित होने की भावना थी. इन तर्कों के आधार पर कहा जा सकता है कि अपभ्रंश के बाद की स्थिति अवहट्ट है.' अपभ्रंश के व्याकरणिक आधार पर प्रान्तीय शब्दों और रूपों के मेल से जो भाषा विकसित हुई वह अवहट्ट थी. इसका काल तेरहवीं सदी से पन्द्रहवीं सदी तक माना जाता है. डा० चाटुर्ज्या विद्यापति की अवहट्ट पर विचार करते हुए इसी मान्यता को स्वीकार करते हैं." दिवेतिया इसे कनिष्ठ अपभ्रंश मानते हैं और इसे बारहवीं से पन्द्रहवीं शताब्दी तक की विकृत भाषा स्वीकार करते हैं. 5
डा० गोवर्धन शर्मा : अपभ्रंश का विकास : ११
हम पहले बता चुके हैं कि परिनिष्ठित भाषा के रूप में शौरसेनी अपभ्रंश का समस्त उत्तर भारत में प्रचार था, किन्तु स्थानीय बोलियाँ भी समानान्तर रूप से विकसित हो रही थीं. स्थानीय जनपदीय बोलियों का विकास कालान्तर में आधुनिक आर्य भाषाओं में हुआ किन्तु परिनिष्ठित साहित्यिक अपभ्रंश अपना स्वरूप दरबारी कवियों के सहयोग से टिकाने का यत्न करने लगी. भाट चारणादि कवियों द्वारा व्यवहृत अपभ्रंश भाषा में भी शनैः-शनैः परिवर्तन लाना जरूरी हो गया, ताकि उसे दरबारी तथा सामन्तगण समझ सकें. इस प्रकार साहित्यिक अपभ्रंश का यह विकृत स्वरूप अवहट्ट नाम से पहिचाना जाने लगा. डा० चाटुर्ज्या के अनुसार विद्यापति की अवहट्ट भी औपचारिक दरबारी कविता की भाषा तक ही सीमित है.' इन सब तथ्यों के आधार पर निम्न बातें स्पष्ट हो जाती हैं—
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१. स्वयंभू - पउम चरिउ रामायण १-४;
'हिन्दी काव्यधारा' से उद्धृत — 'अवहत्थे वि खलु यशु गिरवसेसु'.
२. नामवर सिंह - हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग, पृ० १.
४. शिवप्रसाद सिंहः कीर्तिलता और अवहट्टभाषा - पृ० ६.
५. देवेन्द्रकुमार अपभ्रंशप्रकाश पृ० ७.
६. वही पृ० २१.
७. चटर्जी: आरिजिन एण्ड डेवलपमेंट आफ बेंगाली लेंग्वेज, पृ० ११४.
८. देवेतिया: गुजराती लेंग्वेज एण्ड लिटरेचर भाग १ - १०४०
६. म० नि० मोदी: अपभ्रंश पाठावली - पृ० २०.
१०. चटर्जी : आरिजिन एण्ड डेवलपमेंट आफ बेंगाली भूमिका पृ० ११४.
३. वही, पृ० २.
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