Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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डा. गोवर्धन शर्मा : अपभ्रश का विकास : ६०६
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की है, किन्तु सभी का उल्लेख अपूर्ण और अपर्याप्त है. शेषकृष्ण की प्राकृतचन्द्रिका में अपभ्रंश के सत्ताईस भेद स्थापित करने की चेष्टा की गई. मार्कण्डेय ने अपने 'प्राकृतसर्वस्व' में प्राकृतचंद्रिका से जो लक्षण और उदाहरण उद्धृत किये हैं, वे इतने अपर्याप्त और अस्पष्ट हैं कि स्वयं मार्कण्डेय ने इनको सूक्ष्म कहकर नगण्य बताया है और इनका पृथक्पृथक् लक्षण-निर्देश न कर उन सभी को नागर, ब्राचड और उपनागर इन तीन प्रधान भेदों में ही अन्तर्भुक्त माना है.२ कुवलयमाला में अठारह देशी बोलियों के नाम गिनाये हैं. राहुलजी इनकी गणना अपभ्रंश के प्रकारों में करते हैं.3 अपभ्रंश का जो भी साहित्य मिलता है, वह बहुत कम भाषागत भेदों को लिए है. यह समस्त साहित्य एक ही परिनिष्ठित भाषा का है; यद्यपि उसमें स्थानीय प्रभाव अल्प मात्रा में मिल सकता है. ग्यारहवीं शती में नमि साधु ने अपभ्रंश के तीन भेद-उपनागर, आभीर और ग्राम्य गिनाये हैं. पुरुषोत्तम ने बारहवीं शती में अपभ्रंश के नागरक, ब्राचड,
और उपनागरक भेद माने हैं. तेरहवीं शती में शारदातनय ने नागरक, उपनागरक और ग्राम्य ये तीन प्रकार माने. सत्रहवीं शती में मार्कण्डेय ने नागर उपनागर और ब्राचड ये तीन भेद माने, इसका उल्लेख हम पहले कर चुके हैं. ब्राचड अपेक्षाकृत अपरिष्कृत मानी गई है. परिष्कृत अपभ्रश को नागर पुकारा गया है. जब यह प्राकृत से मिश्रित होती तो उसे उपनागर कहा जाता था. यह विभाजन देशगत न होकर संस्कार की दृष्टि से किया गया है, अत: आधुनिक आर्यभाषाओं की उत्पत्ति और विकास को समझने के लिये उपयुक्त नहीं है. इसी समस्या के निराकरण के लिये प्राकृतों के अनुरूप ही विभिन्न अपभ्रशों की कल्पना की गई है. देशगत भेदों को संस्कार के आधार पर किये गये भेदों में अन्तर्भुक्त मानना अनुचित है. क्योंकि जिन भाषाओं के उत्पत्तिस्थान भिन्न-भिन्न प्रदेश हैं और जिनकी प्रकृति भी भिन्न-भिन्न प्रदेश की प्राकृत भाषायें हैं तब वे अपभ्रंश भाषाएँ भी भिन्न-भिन्न ही हो सकती हैं और उन सब का समावेश एक दूसरी में नहीं किया जा सकता. वास्तव में बात यह है कि अपभ्रंश के देशगत कई प्रकार थे किन्तु चूंकि वे साहित्य में गृहीत नहीं होते थे, अतः परवर्ती और उत्तरकालीन वैयाकरण उनके नमूने न पा सके होंगे. उपयुक्त उदाहरणों के अभाव में इसके अतिरिक्त और हो भी क्या सकता था ? डा० धीरेन्द्र वर्मा भी इसी धारणा को प्रकट करते दिखाई देते हैं.६ अवश्य ही बोलचाल की अनेक जनपदीय भाषाओं का प्रचलन रहा होगा किन्तु साहित्य में अपभ्रंश का एक परिनिष्ठित रूप ही प्रयुक्त होता होगा. इसी धारणा की पुष्टि हमें 'रविकर' के कथन में मिलती है. रविकर ने अपभ्रंश के दो रूप दिये हैं.--एक का विकास साहित्यिक प्राकृत के आधार पर हुआ परन्तु विभक्ति, समास, शब्द-विन्यास आदि की दृष्टि से वह भिन्न है और दूसरा देशी भाषा का रूप है. यह देशी स्वरूप साहित्य में अधिक व्यवहृत नहीं होने के कारण आज अज्ञेय है किंतु अपभ्रंश का एक स्वरूप जो साहित्यिक भाषा के रूप में मान्य था, उपलब्ध है. अपभ्रंश के किन रूपों का प्रयोग साहित्य में होता था, इसके विषय में कुछ मतभेद अवश्य हैं किंतु-पश्चिमी वर्ग के वैयाकरणों ने साहित्य में प्रयुक्त अपभ्रंश का आधार शौरसेनी ही माना है और यह अनुमान किया जा सकता है कि शौरसेनी अपभ्रंश ही काव्य की भाषा के रूप
१. प्राकृतचन्द्रिका के मेद इस प्रकार हैं:
वाचडो लाटवैदर्भाबुपनागरनागरौ, बार्बरावन्त्यपांचालटाक्कमालवकैकयाः । गोडोहैषपाश्चात्यपाण्डयकीन्तलसंहलाः, कालिंग्यप्राच्यकार्यटकांच्याद्राविडगौर्जराः ।
अभीरो मध्यदेशीयः सूक्षममेद व्यवस्थिताः, सप्तविंशत्यपभ्रंशा वैतालादिप्रमेदतः । २. मार्ककण्डेयः प्राकृत सर्वस्व-पृ० ३ तथा १२२. ३ राहुल सांकृत्यायनः हिन्दी काव्यधारा-भूमिका पृ० ७. ४. कीथः हिस्ट्री आफ संस्कृत लिटरेचर-पृ० ३५. ५. हरगोविंददास सेठ : पाझ्यसहमहएणवो-भूमिका पृ० ४५. ६. डा० धीरेन्द्र वर्मा: हिन्दी भाषा का इतिहास-भूमिका-पृ० ५०. ७. डा० सरयूप्रसाद अग्रवाल : प्राकृतविमर्श-पृ० १७. ८, रामसिंह तोमर : प्राकृत व अपभ्रश साहित्य का इतिहास और हिन्दी पर उसका प्रभाव; पृ० ६२-७२.
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