Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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१०८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय आसपास खेतान के निकट गोशृंग अथवा गोशीर्ष विहार में प्राप्त हुई थी.' यह भरत के निर्देशानुसार उकार-बहुला भाषा का क्षेत्र था. और इसलिए धम्मपद की प्राकृत पर स्थानीय प्रभाव पड़ना स्वाभाविक ही था. इसी प्रकार ललितविस्तर में क्षेपकों की भरमार है. इसका रूप लगभग चौथी शती में स्थिर हुआ था. चूकि चौथी शती में अपभ्रंश का उद्भव हो चुका था. इसलिये ललितविस्तर में इस उकार-बहुला भाषा का प्रभाव दीख पड़ता है. राजशेखर ने अपने ग्रंथ 'काव्यमीमांसा' में अपभ्रंश का विस्तारक्षेत्र सकल मरुभूमि, टक्क और भादानक बताया है. इससे प्रतीत होता है कि राजशेखर के समय तक अपभ्रंश का प्रसार राजस्थान, पंजाब, सौराष्ट्र, गुजरात तथा समस्त पश्चिमोत्तर भारत में हो गया था. शनैः शनैः इसका प्रसार बढ़ता गया और नवी शती में इसका प्रसार हिमालय की तराई से गोदावरी और सिन्ध से ब्रह्मपुत्र तक था. अपभ्रंश कविता पर विचार करते हुए राहुल जी ने लिखा है-'जहां सरहपा और शवरपा विहार-बंगाल के निवासी थे, वहां अब्दुर्रहमान का जन्म मुल्तान में हुआ था. स्वयंभू और कनकामर शायद अवधी और बुन्देलीयुक्तप्रान्त के थे, तो हेमचन्द्र और सोमप्रभ गुजरात के और रसिक तथा आश्रयदाता होने के कारण मान्यखेट [मालखेड-दक्षिण हैदराबाद] का भी इस साहित्य के सृजन में हाथ रहा है. इस प्रकार हिमालय से गोदावरी और सिन्ध से ब्रह्मपुत्र तक ने इस साहित्य के निर्माण में हाथ बंटाया है.४ इससे जान पड़ता है कि अपभ्रंश के नाम से पहचानी जाती एक साहित्यिक भाषा होनी चाहिये जो इस विस्तृत भूभाग में कविता के लिये प्रयुक्त की जाती रही है और जिससे कालान्तर में विभिन्न अर्वाचीन आर्य-भाषाओं का विकास हुआ. लेकिन वह बिल्कुल संभव नहीं है कि एक ही प्राकृतोत्तर अपभ्रंश से आधुनिक विभिन्न आर्यभाषाएं विकसित हुई हों. उदाहरणार्थ मागधीप्राकृत से जो अपभ्रंश भाषा विकसित हुई, वही आधुनिक बंगला, उड़िया, आसामी, मागधी, मैथिली और भोजपुरी के रूप में बदल गई हो, यह संभव नहीं जान पड़ता है. इन सब की पूर्ववर्ती अपभ्रंश भाषायें निश्चय ही अलग-अलग रूपों में रही होंगी. इसी मत को ग्रियर्सन, पिशेल, हर्नले पंडित कामताप्रसाद गुरु डा० धीरेन्द्र वर्मा प्रभृति पण्डित मानते हैं. आजकल प्रत्येक प्राकृत के अपभ्रंश रूप की कल्पना की जाने लगी है, किन्तु व्याकरण के प्राचीन ग्रंथों में इस प्रकार का विभाजन नहीं दिखाई देता. रुद्रट ने अवश्य अपने काव्यालंकार में देश-भेद के अनेक भेदों का निर्देश किया है.११ अपभ्रंश में अनेकता की स्थापना बहुत से उत्तरकालीन वैयाकरणों द्वारा भी की गई है. नमि साधु,१२ रामचन्द्र, गुणचंद्र पुरुषोत्तम१४ रामतर्कवागीश,५ क्रमदीश्वर,शारदातनय, आदि ने अपभ्रंश में अपने-अपने ढंग से अनेकता की स्थापना
१. नामवरसिंह : हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग पृ०१८, २. राजशेखर : काव्यमीमांसा पृ०, १२४. ३. नेमिचन्द्र जैन : हिन्दो जैन साहित्य परिशीलन, पृ० २०. ४. राहुल सांकृत्यायन : हिन्दी काव्यधारा भूमिका पृ० ५-६. ५. हजारीप्रसाद द्विवेदी: हिन्दी साहित्य पृ० है. छ. एसाइवलोपीडिया ब्रिटेनिका, भाग ३२ पृ० २५१ पर निबंध. ७. पिशेल : प्राकृत भाषाओं का व्याकरण पृ० ५८ हिन्दी अनुवाद. ८. हर्नले : ए कम्पेरेटिव ग्रामर आफ गौडियन लेग्वेजेज-भूमिका-पृ०११-१२. १. पं० कामताप्रसाद : हिन्दी व्याकरण-पृ० १७. १०. डा० धीरेन्द्र वर्मा : हिन्दी भाषा का इतिहास : भूमिका-पृ० ४१-५०. ११. रुद्रट : काव्यालंकार-२-१२-'षष्ठोऽत्र भूरिमेदो देशविशेषादपभ्रंशः'. १२. नमि साधुः काव्यालंकार वृत्ति-२-१२. १३. रामचन्द्र गुणचन्द्र : नाट्यदर्पण-२०६. १४. पुरुषोत्तमः प्राकृतानुशासन-प्राकृतविमर्श पृ० ७० पर उल्लेख. १५. रामतर्कवागीशः प्राकृतकल्पतरु-प्राकृतविमर्श पृ० ८ पर उल्लेख. १६. क्रमदीश्वर : संक्षिप्त सार-आठवां परिच्छेद. १७. शारदातनय : भावप्रकाशन-पृ० ३१०.
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