Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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१२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय
१. अवहट्ट वस्तुतः अपभ्रंश ही है.
२. अवहट्ट नाम से अपभ्रंश की विकसित अवस्था अथवा परवर्ती कनिष्ठ अपभ्रंश का बोध होता है, जो अपभ्रंश के साहित्यिक आधार पर विकसित हुई.
३. इसके विकास में दरबारी कविता की परम्परा का बड़ा भारी हाथ रहा है.
४. अवहट्ट में स्थानीय प्रभाव अपेक्षाकृत अधिक हैं.
२
इसलिए प्रस्तुत प्रबंध में अपभ्रंश को व्यापक अर्थ में ग्रहीत किया गया है, जिसमें अवहट्ट भी आ जाती है. विद्यापति के पूर्वांकित उद्धरण 'देसिल वअना सब जन मिठ्ठा' को लेकर कुछ विद्वानों ने अपभ्रंश को देसी या देशी माना है. इस दिशा में विभिन्न विद्वानों ने काफी काम किया है. पिशेल ने अपने प्राकृत भाषाओं के व्याकरण में 'देसी' पर विचार किया है. ' ग्रियर्सन ने अपने एक विस्तृत निबन्ध 'आन दी माडर्न इण्डो-आर्यन वर्नाक्यूलर्स' में भी इस सम्बन्ध में प्रकाश डाला है. डा० उपाध्ये ने शिप्ले'ज एसाइक्लोपीडिया आफ लिटरेचर में प्रकाशित अपने निबन्ध 'प्राकृत लिटरेचर' में इस प्रश्न को उठाया है और डा० तगारे ने तो अपनी पुस्तक 'हिस्टोरिकल ग्रेमर आफ अपभ्रंश' में 'देशी और अपभ्रंश' शीर्षक से अलग विस्तृत अध्याय लिख डाला है. विद्यापति की उक्त पंक्तियों के आधार पर डा० बाबूराम सक्सेना देशी और अवहट्ट को एक ही मानते हैं. डा० हीरालाल जैन स्वयंभू, पुष्पदन्त, पद्मदेव, लक्ष्मण आदि अपभ्रंश के कवियों के लम्बे उद्धरण देकर सिद्ध करते हैं कि इनकी भाषा देशी थी. किन्तु प्रसिद्ध भाषा-विद् जुलब्लाक अपभ्रंश अर्थात् देशी- - इस धारणा को सही नहीं मानते. अतः देशी शब्द के प्रयोग का विकास क्रम जानना ही ऐसी दशा में एक मात्र मार्ग हो सकता है, जिससे हम सचाई तक पहुँच सकें. देशी शब्द का प्रयोग भरत ने अपने नाट्यशास्त्र में भी किया है, किन्तु वहाँ भाषा देशी नहीं है, शब्द देशी हैं. उनकी राय में जो शब्द संस्कृत के तत्सम और तद्भव शब्दों से भिन्न हो, उन्हें देशी मानना चाहिए. भरत के देशी शब्द की यह परिभाषा प्रायः बहुत पीछे तक आलंकारिकों और वैयाकरणों द्वारा मान्य रही है. बारहवीं शती के प्रसिद्ध वैयाकरण हेमचन्द्राचार्य द्वारा रचित 'देशी' नाममाला ऐसे ही शब्दों को लेकर चली है जिनकी व्युत्पत्ति प्रकृति प्रत्यय के आधार पर सिद्ध न हो सके. उन्होंने उन शब्दों को देशी माना है जो 'लक्षण' से सिद्ध नहीं होते हैं. 'देशी शब्द के बारे में वैयाकरणों और आलंकारिकों की ऊपर कथित व्युत्पत्ति प्रणाली को ही लक्ष्य करके पिशेल ने कहा था कि ये क्याकरण प्राकृत और संस्कृत के प्रत्येक ऐसे शब्द को देशी कह सकते हैं, जिसकी व्युत्पत्ति संस्कृत से न निकाली जा सके. ७ इस प्रकार हमें ज्ञात होता है, कि 'देशी' का प्रयोग शब्द के लिए हुआ है और भरत, रुद्रट, हेमचंद्राचार्य व पिशेल आदि वैयाकरण मानकर चलते हैं कि प्रत्यय-प्रकृति- विचार के घेरे के बाहर के शब्द देशी हैं.
भाषा अथवा बोली के लिए भी 'देशी' विशेषण अथवा संज्ञा का उपयोग किया जाता रहा है. 'तरंगवई कहा' के प्रणेता पादलिप्त ने अपनी प्राकृत भाषा को 'देसी वयण" कहा है. उद्योतन सूरि ने अपनी रचना 'कुवलयमाला' में महाराष्ट्री
१. पिशल: प्राकृत भाषाओं का व्याकरण हिन्दी अनुवाद - पृ० १४-१५.
२. ग्रियर्सनः इंडियन एंटिबवेरी - १६३१-३३
३. बाबूराम सक्सेनाः कीर्तिलता भूमिका पृ० ७.
४. ड० हीरालाल जैनः पाहुड दोहा-भूमिका भाग
५. वही पृ० ३३ पर उद्धृत.
As regards the identification of Deshi-Apbhransha, I feel doubts.
६. हेमचन्द्राचार्यः देशी नाममाला - जो लक्खणे सिद्धा ण पसिद्ध सक्कयाहिहाणेसु । ण य गग्ग लक्खणा सति संभवा ते इह शिबद्ध.
७. पिशल: प्राकृत भाषाओं का व्याकरण - हिन्दी अनुवाद पृ० १४-१५
८. पादलिप्त - तरंगवती कथा.
पालित्तएण रइय | वित्थर तस्स देसी वयणेहि,
ना तरंगवई कहा विचित्ता-विचित्ता विडलायं.
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- याकोबी द्वारा सनत्कुमार चरित-भूमिका पृ० १७ पर उद्धृत.
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