Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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११० : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय
में प्रतिष्ठित थी ? डा. सुनीतिकुमार चाटुा का भी यही मत है कि पश्चिमी अथवा शौरसेनी अपभ्रंश ही समूचे आर्य-भारत, गुजरात व पश्चिमी पंजाब से बंगाल तक प्रचलित 'लिंग्वा फका' 'बन गई थी, जो मधुर और काव्योपयुक्त भाषा मानी जाती थी. फिर भी उस समय आधुनिक आर्यभाषाओं का स्वरूप गठित हो रहा था. कुछ समय तक तो पुरानो शौरसेनी अपभ्रंश ही काव्य की भाषा के रूप में प्रयुक्त होती रही और विभिन्न प्रदेशों की बोलियाँ कभी-कभी उस प्रदेश में रचे जाने वाले साहित्य को प्रभावित करती रहीं. बाद में वे बोलियां भी स्वतन्त्र काव्य-भाषा के रूप में प्रयुक्त होने लगी. बाद में अक्सर ऐसे भी उदाहरण मिलते हैं कि एक ही कवि नई काव्य-भाषा में भी रचना करता है और पुरानी अपभ्रंश में भी अपना काव्य-चमत्कार दिखाने का प्रयत्न करता है। जैसे विद्यापति. इस प्रकार की दोनों भाषाओं यथा अपभ्रंश और देशी का प्रयोग इस बात का द्योतक है कि उस काल में ये दोनों भाषारूष प्रचलित थे और शिक्षितों द्वारा समझे जाते थे.४ भारतीय आर्यभाषा के विकास की जिस अवस्था को आज हम अपभ्रश के नाम से पुकारते हैं उसके लिये सदा अपभ्रंश संज्ञा का व्यवहार नहीं हुआ है. प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में उसका उल्लेख अपभ्रंश और अपभ्रष्ट के रूप में किया गया है. अधिकांश संस्कृत विद्वानों ने अपभ्रंश शब्द का ही प्रयोग किया है, अपभ्रष्ट शब्द का उल्लेख बहुत कम मिलता है. 'विष्णुधर्मोत्तर पुराण' जैसे दो एक ग्रन्थों ने ही अपभ्रष्ट संज्ञा का व्यवहार किया है. किन्तु अपभ्रंश-ग्रंथों में अवव्यंस, अवहंस अवहत्थ, अवहटु, अवहठ, अवहट आदि नाम भी मिलते हैं. परवर्ती कवियों द्वारा इन शब्दों का प्रयोग, अधिकतर किया गया है. अवहट्ट का अद्यावधि ज्ञात सबसे पहला प्रयोग ज्योतिरीश्वर ठाकुर के वर्णरत्नाकर-१३२५ ईस्वी में मिलता है.५ जहाँ राजसभा में भाट द्वारा षड् भाषाओं की गणना की जाती है. विद्यापति ने कीर्तिलता की अपनी भाषा की प्रशंसा करते हुये उसे 'अवहट्ट' कह कर पुकारा है.६ प्राकृत 'पंगलम्' के टीकाकार बंशीधर की राय में 'प्राकृत पैंगलम्' की भाषा अवहट्ट ही है. सन्देशरासक के रचयिता अब्दुर्रहमान ने अपने काव्य की भाषा को अवहट्ट कहा है. कुवलयमालाकहा के रचयिता उद्योतनसूरि ने अवहंस शब्द का प्रयोग कियाहै. इसी शब्द का प्रयोग कहीं अवब्भंस के रूप में भी हुआ है.१० पुष्पदन्त संस्कृत और प्राकृत के साथ अवहंस की गणना करते हैं.११ स्वयंभू देव अपनी
१. चटर्जी : आरिजिन एंड डेवलमेंट आफ बंगाली लेग्वेज-पृ० १६१. २. वहो पृ०११३-१४ ३. डा० धर्मवीर भारती : सिद्ध साहित्य-पृ० २८८. ४. डा० भण्डारकर : रिपोर्ट आन दी सर्च फार एम० एस० एस०, १८८८-६४, पृ० ७१. ५. ज्योतिरीश्वर ठाकुर: वणरत्नाकर-५५ सं०, पृ० ४४.
पुनु कइसन भाट, संस्कृत, प्राकृत, अवहट्ट, पेशाची, शौरसेनी, मागधी, बहु भाषा तत्त्वज्ञक. ६. विद्यापति : कोर्तिलता-प्रथम पल्लव.
सक्कय वाणी बुहान भावइ. पाउंअ रसको मम्म न पायइ ।।२०।।
देसिल बचना सवजनमिट्ठा, तं तैसन जम्पझो अवहट्टा ।।२१।। ७. वंशीधरः प्राकृत पैग्लम् , टीका पृ० ३.
पढमं भासतरंडो पाओसो पिंगलो जयउ. गाथा १. टीका-प्रथमो भाषातरंडः प्रथम प्रायः भाषा अवहट्ट भाषा.
यया भाषया अयं ग्रन्थो रचितः स अवहट्ट भाषा. ८. अब्दुर्रहमानः संदेशरासक-प्रथम प्रक्रम, छं०६.
अवहट्टय सक्कय पाश्यमि पेसाइयंमि भासाए लक्खणछन्दाहरणे सुकइत्तं भूसियं जेहि. है. एस० बी० गांधी: अपभ्रशकाव्यत्रयी-पृ०१५-१८ पर उद्धृत.. १०. अल्केड मास्टरः बी० एस० ओ० जे० एस० भाग १३-२.
किं चिं अवभंसका दा. ११. पुष्पदन्त-महापुराण-संधि कडवक १८-सक्कय पायउ पुगु अवह सउ.
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